शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने साईं पूजा के पाखंड को दूर करने का महान कार्य किया था- आचार्य मदन

ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ और शारदा पीठ द्वारका के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के निधन पर शारदा सर्वज्ञ पीठ कश्मीर के सचिव विश्व हिंदू पीठाधीश्वर आचार्य मदन जी ने गहरा शोक व्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि वेद मूर्ति स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज भारत में ही नहीं अपितु विश्व भर के सनातन धर्मियों के लिए परम प्रेरणा थे। शंकराचार्य स्वरूपानंद जी के परम शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी महाराज द्वारा साईं पूजा के विरुद्ध विश्वव्यापी जागरूक आंदोलन चलाया जिसका परिणाम यह रहा कि अधिकांश सनातन धर्म के मंदिरों से मुस्लिम पीर साईं बाबा की मूर्तियों को बाहर निकाल दिया गया। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज के शिष्य व राष्ट्रीय प्रवक्ता पंडित अजय गौतम जी ने बताया कि जगतगुरु संत परंपरा के मुताबिक उन्हें सोमवार को झोतेश्वर के परमहंसी गंगा आश्रम में भू-समाधि दी जाएगी। उनका यह आश्रम मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में है।
शंकराचार्य का दाह संस्कार करने की बजाय उन्हें जमीन में दफनाया जाएगा। यह प्रक्रिया एक खास तरीके से पूरी की जाती है, जिसे भू-समाधि कहते हैं। अब सवाल यह उठता है कि हिंदू धर्म में आम लोगों को अंतिम संस्कार दाह क्रिया यानी जलाकर किया जाता है, तो संन्यासियों के लिए अलग नियम क्यों है ? संतों का जीवन परोपकार के लिए अखिल भारतीय तीर्थ मर्यादा परिषद के सभापति पंडित इंद्र मोहन मिश्र का कहना है, 'आम लोगों को मृत्यु के बाद जलाया जाता है, लेकिन साधु-संतों को समाधि दी जाती है, क्योंकि उनका पूरा जीवन परोपकार के लिए है। यहां तक कि मृत्यु के बाद भी संत अपने शरीर से परोपकार करते हैं। सन्यास आश्रम अग्नि के समान है, इसलिए अग्नि के प्रकाश गुण वाला भगवा रंग सन्यास आश्रम में पहना जाता है , सन्यासी के लिए अग्निहोत्र आदि कर्म की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है, इसलिए साधु-संतों का अंतिम संस्कार भू यानि जमीन या नदी के जल में समाधि देकर किया जाता है। इन दोनों तरीकों में छोटे-छोटे करोड़ों जीवों को शरीर से आहार मिल जाता है। साधु-संतों के लिए अग्नि का सीधे स्पर्श करने की मनाही रहती है। इसलिए मृत्यु के बाद पृथ्वी तत्व में या जल तत्व में विलीन करने की परंपरा है। समाधि की वजह से शिष्यों को अपने गुरु का सान्निध्य हमेशा मिलता रहता है।'