ऋग्वेद 1.8.5

 वयं शूरैभिरस्तृभिरिन्द्र त्वया॑ युजा वय

म्सासह्याम पृतन्यतः॥४॥

वयम्।शूरैभिःअस्तृभिःइन्द्र। त्वयायुजा।व॒यम्। सासह्यामा पृत॒न्यतः॥४॥

पदार्थ:-(वयम्) सभाध्यक्षाः सेनापतिवराः (शूरेभिः) सर्वोत्कृष्टशूरवीरैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशो न। (अस्तृभिः) सर्वशस्त्रास्त्रप्रक्षेपणदक्षैः सह (इन्द्र) युद्धोत्साहप्रदेश्वर (त्वया) अन्तर्यामिणेष्टेन (युजा) कृपया धार्मिकेषु स्वसामर्थ्यसंयोजकेन (वयम्) योद्धारः (सासह्याम) पुनः पुनः सहेमहि। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं लिडर्थे लोट् च। (पृतन्यतः) आत्मनः पृतनामिच्छतः शत्रून् ससेनान्। पृतनाशब्दात् क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चिलोपः। (अष्टा०७.४.३९) अनेन ऋचि ऋग्वेद एवाकारलोपः॥४॥

अन्वयः-हे इन्द्र! युजा त्वया वयमस्तृभिः शूरेभिर्योद्धृभिः सह पृतन्यतः शत्रून् सासह्यामैवंप्रकारेण चक्रवर्तिराजानो भूत्वा नित्यं प्रजाः पालयेम॥४॥

भावार्थ:-शौर्य द्विविधं पुष्टिजन्यं शरीरस्थं विद्याधर्मजन्यमात्मस्थं च। एताभ्यां सह वर्तमानर्मनुष्यैः परमेश्वरस्य सृष्टिरचनाक्रमान् ज्ञात्वा न्यायधैर्य्यसौजन्योद्योगादीन् सद्गुणान् समाश्रित्य सभाप्रबन्धेन राज्यपालनं दुष्टशत्रुनिरोधश्च सदा कर्त्तव्य इति।।४।___

पदार्थ:-हे (इन्द्र) युद्ध में उत्साह के देनेवाले परमेश्वर ! (त्वया) आपको अन्तर्यामी इष्टदेव मानकर आपकी कृपा से धर्मयुक्त व्यवहारों में अपने सामर्थ्य के (युजा) योग करानेवाले के योग से (वयम्) युद्ध के करनेवाले हम लोग (अस्तृभिः) सब शस्त्र-अस्त्र के चलाने में चतुर (शूरभिः) उत्तमों में उत्तम शूरवीरों के साथ होकर (पृतन्यतः) सेना आदि बल से युक्त होकर लड़नेवाले शत्रुओं को(सासह्याम) वार-वार सहें अर्थात् उनको निर्बल करें, इस प्रकार शत्रुओं को जीतकर न्याय के साथ चक्रवर्त्ति राज्य का पालन करें।।४।

भावार्थ:-शूरता दो प्रकार की होती है, एक तो शरीर की पुष्टि और दूसरी विद्या तथा धर्म से संयुक्त आत्मा की पुष्टिइन दोनों से परमेश्वर की रचना के कर्मों को जानकर न्याय, धीरजपन, उत्तम स्वभाव और उद्योग आदि से उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त होकर सभाप्रबन्ध के साथ राज्य का पालन और दुष्ट शत्रुओं का निरोध अर्थात् उनको सदा कायर करना चाहिये।।४।

पुन: स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते।

उक्त कार्यसहाय करनेहारा जगदीश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है