ऋग्वेद 1.8.2

नि येनं मुष्टिहुत्या नि वृत्रा फुणामहै।

त्वोासो न्यर्वता॥२॥

नि। येन। मुष्टिऽहत्या। नि। वृत्रा। घृणामहै। त्वाऽऊतासः। नि। अर्वता॥ २॥

पदार्थ:-(नि) नितरां क्रियायोगे (येन) पूर्वोक्तेन धनेन (मुष्टिहत्यया) हननं हत्या मुष्टिभिर्हत्या मुष्टिहत्या तया (नि) निश्चयार्थे (वृत्रा) मेघवत्सुखावरकान् शत्रून्। अत्र सुपां सुलुगिति शस: स्थाने आजादेशः(रुणधामहै) निरुन्ध्याम (त्वोतास:) त्वया जगदीश्वरेण रक्षिताः सन्तः (नि) निश्चयार्थे (अर्वता) अश्वादिभिः सेनाङ्गैः। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४)॥२॥

अन्वयः-हे जगदीश्वर! त्वं त्वोतासस्त्वया रक्षिता सन्तो वयं येन धनेन मुष्टिहत्ययाऽर्वता निवृत्रान्निश्चितान् शत्रून् निरुणधामहै, तेषां सर्वदा निरोधं करवामहै, तदस्मभ्यं देहि॥२॥

भावार्थ:-ईश्वरेष्टैर्मनुष्यैः शरीरात्मबलैः सर्वसामर्थ्येन श्रेष्ठानां पालनं दुष्टानां निग्रहः सर्वदा कार्य्य:, यतो मुष्टिप्रहारमसहमानाः शत्रवो विलीयेरन्।।२।।

पदार्थ:-हे जगदीश्वर ! (त्वोतास:) आप के सकाश से रक्षा को प्राप्त हुए हम लोग (येन) जिस पूर्वोक्त धन से (मुष्टिहत्यया) बाहुयुद्ध और (अर्वता) अश्व आदि सेना की सामग्री से (निवृत्रा) निश्चित शत्रुओं को (निरुणधामहै) रोकें अर्थात् उनको निर्बल कर सकें, ऐसे उत्तम धन का दान हम लोगों के लिये कृपा से कीजिये॥२॥

भावार्थ:-ईश्वर के सेवक मनुष्यों को उचित है कि अपने शरीर और बुद्धिबल को बहुत बढ़ावें, जिससे श्रेष्ठों का पालन और दुष्टों का अपमान सदा होता रहे, और जिससे शत्रुजन उनके मुष्टिप्रहार को न सह सकें, इधर-उधर छिपते-भागते फिरें।।२॥

मनुष्याः किं धृत्वा शत्रून् जयन्तीत्युपदिश्यते।

मनुष्य किसको धारण करने से शत्रुओं को जीत सकते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है