ऋग्वेद 1.37.5

 प्रशंसा गोष्वघ्यं क्रीळं यच्छमारुत

म्जम्भे रसस्य वावृधे॥५॥१२॥

प्रा शंस। गोषु। अन्यम्। क्रीळम्। यत्। शर्धः। मारुतम्। जम्भ। रसस्या ववृधे॥५॥

पदार्थ:-(प्र) प्रकृष्टार्थे (शंसा) अनुशाधि (गोषु) पृथिव्यादिष्विन्द्रियेषु पशुषु वा (अन्यम्) हन्तुमयोग्यमघ्न्याभ्यो गोभ्यो हितं वा। अध्यादयश्च। (उणा०४.११२)। अनेनाऽयं सिद्धः। अन्येति गोनामसु पठितम्। (निघं०२.११) (क्रीडम्) क्रीडति येन तत् (यत्) (शर्धः) बलम् (मारुतम्) मरुतो विकारो मारुतस्तम् (जम्भे) जम्भ्यन्ते गात्राणि विनाम्यन्ते चेष्टयन्ते येन मुखेन तस्मिन् (रसस्य) भुक्तान्नत उत्पन्नस्य शरीरवर्द्धकस्य भोगेन (वावृधे) वर्धते। अत्र तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य (अष्टा०६.१.७) इति दीर्घः ।।५॥ ___

अन्वयः-हे विद्वंस्त्वं यद् गोषु क्रीडमघ्न्यं मारुतं जम्भे रसस्य सकाशादुत्पद्यमानं शर्धो बलं वावृधे तन्मह्यं प्रशंस नित्यमनुशाधि॥५॥

भावार्थ:-मनुष्यैर्यद्वायुसम्बन्धि शरीरादिषु क्रीडाबलवर्धनमस्ति तन्नित्यं वर्धनीयम्। यावद्रसादिज्ञानं तत्सर्वं वायुसन्नियोगेनैव जायते, अतः सर्वैः परस्परमेवमनुशासनं कायं यतः सर्वेषां वायुगुणविद्या विदिता स्यात्।।५।

मोक्षमूलरोक्तिः। स प्रसिद्धो वृषभो गवां मध्य अर्थात् पवनदलानां मध्ये उपाधिवर्द्धितो जातः सन् यथा तेन मेघावयवाः खादिताः। कुतः? अनेन मरुतामादरः कृतस्तस्मादित्यशुद्धास्ति। कथम्। अत्र यद्गवां मध्ये मारुतं बलमस्ति। तस्य प्रशंसाः कार्याः। यच्च प्राणिभिर्मुखेन खाद्यते तदपि मारुतं बलमस्तीति। अत्र जम्भशब्दार्थे विलसन मोक्षमूलराख्यविवादो निष्फलोऽस्ति॥५॥

पदार्थ:-हे विद्वान्मनुष्यो! तुम (यत्) जो (गोषु) पृथिवी आदि भूत वा वाणी आदि इन्द्रिय तथा गौ आदि पशुओं में (क्रीडम्) क्रीड़ा का निमित्त (अघ्न्यम्) नहीं हनन करने योग्य वा इन्द्रियों के लिये हितकारी (मारुतम्) पवनों का विकाररूप (रसस्य) भोजन किये हुए अन्नादि पदार्थों से उत्पन्न (जम्भे) जिससे गात्रों का संचलन हो, मुख में प्राप्त हो के शरीर में स्थित (शर्धः) बल (वावृधे) वृद्धि को प्राप्त होता है, उसको मेरे लिये नित्य (प्रशंसा) शिक्षा करो।।५।

भावार्थ:-मनुष्यों को योग्य है कि जो वायुसम्बन्धी शरीर आदि में क्रीड़ा और बल का बढ़ना है, उसको नित्य उन्नति देवें और जितना रस आदि प्रतीत होता है, वह सब वायु के संयोग से होता है। इससे परस्पर इस प्रकार सब शिक्षा करनी चाहिये कि जिससे सब लोगों को वायु के गुणों की विद्या विदित हो जावे॥५॥ ___

मोक्षमूलर साहिब का कथन कि यह प्रसिद्ध वायु पवनों के दलों में उपाधि से बढ़ा हुआ जैसे उस पवन ने मेघावयवों को स्वादयुक्त किया है, क्योंकि इसने पवनों का आदर किया इससे। सो यह अशुद्ध है, कैसे कि जो इस मन्त्र में इन्द्रियों के मध्य में पवनों का बल कहा है, उसकी प्रशंसा करनी और जो प्राणि लोग मुख से स्वाद लेते हैं, वह भी पवनों का बल है और इस 'जम्भ' शब्द के अर्थ में विलसन और मोक्षमूलर साहिब का वाद-विवाद निष्फल है॥५॥

पुनरेतेभ्यः प्रजाराजजनाभ्यां कि किं कायं ज्ञातव्यं चेत्युपदिश्यते॥

फिर इन पवनों से मनुष्यों को क्या-क्या करना वा जानना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।