ऋग्वेद 1.37.6

 को ो वर्षिष्ठ आ नरो विश्च ग्मश्च धूतयः।

यत्सीमन्तुं न धूनुथ॥६॥

कः। वःवर्षिष्ठः। आ। नरः। दिवः। च। ग्मः। च। धूतयः। यत्। सीम्। अन्तम्। न। धूनुथ॥६॥

पदार्थ:-(क:) प्रश्ने (व:) युष्माकं मध्ये (वर्षिष्ठः) अतिशयेन वृद्धः (आ) समन्तात् (नरः) नयन्ति ये ते नरस्तत्सम्बुद्धौ (दिवः) द्योतकान् सूर्यादिलोकान् (च) समुच्चये (ग्म:) प्रकाशरहितपृथिव्यादि- लोकान्। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) अत्र गमधातोर्बाहुलकादौणादिक आप्रत्यय उपधालोपश्च। (च) तत्सम्बन्धितश्च (धूतयः) धून्वन्ति ये ते (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अन्तम्) वस्त्रप्रान्तम् (न) इव (धूनुथ) शत्रून् कम्पयत॥६॥ ___

अन्वयः-हे धूतयो नरो विद्वांसो मनुष्या! यद्यो यूयं दिवः सूर्यादिप्रकाशकाँल्लोकाँस्तत्सम्बन्धिनोऽन्याँश्च रमः रमपृथिवीस्तत्सम्बन्धिन इतराँश्च सी सर्वतस्तृणवृक्षाद्यवयवान् कम्पयन्तो वायवो नेव शत्रुगणानामन्तं यदाधूनुथ समन्तात् कम्पयत तदा वो युष्माकं मध्ये को वर्षिष्ठो विद्वान्न जायते॥६॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भी राजपुरुषैर्यथाकश्चिबलवान् मनुष्यो निर्बलं केशान् गृहीत्वा कम्पयति, यथा च वायवः सर्वान् लोकान् धृत्वा कम्पयित्वा चालयित्वा स्वं स्वं परिधि प्रापयन्ति, तथैव सर्वं शत्रुगणं प्रकम्प्य तत्स्थानात् प्रचाल्य प्रजा रक्षणीया।।६।। __

मोक्षमूलरोक्तिः। हे मनुष्या! युष्माकं मध्ये महान् कोऽस्ति? यूयं कम्पयितार आकाशपृथिव्योः । यदा यूयं धारितवस्त्रप्रान्तकम्पनवत् तान् कम्पयत। अन्तशब्दार्थ सायणाचार्योक्तं न स्वीकुर्वे किन्तुविलसनाख्यादिभिरुक्तमित्यशुद्धमिति। कुतः? अत्रोपमालङ्कारेण यथा राजपुरुषाः शत्रूनितरे मनुष्यास्तृणकाष्ठादिकं च गृहीत्वा कम्पयन्ति तथा वायवोऽग्निपृथिव्यादिकं गृहीत्वा कम्पयन्तीत्यर्थस्य विदुषां सकाशान्निश्चयः कार्य इत्युक्तत्वात्। यथा सायणाचार्येण कृतोऽर्थो व्यर्थोऽस्ति, तथैव मोक्षमूलरोक्तोऽस्तीति विजानीमः॥६॥ ___

पदार्थ:-हे विद्वान् मनुष्यो! (धूतयः) शत्रुओं को कम्पाने वाले (नरः) नीतियुक्त (यत्) ये तुम लोग (दिव:) प्रकाश वाले सूर्य आदि (च) वा उनके सम्बन्धी और तथा (ग्म:) पृथिवी (च) और उनके सम्बन्धी प्रकाश रहित लोकों को (सीम्) सब ओर से अर्थात् तृण, वृक्ष आदि अवयवों के सहित ग्रहण करके कम्पाते हुए वायुओं के (न) समान शत्रुओं का (अन्तम्) नाश कर दुष्टों को जब (आधूनुथ) अच्छे प्रकार कम्पाओ, तब (व:) तुम लोगों के बीच में (क:) कौन (वर्षिष्ठः) यथावत् श्रेष्ठ विद्वान् प्रसिद्ध न हो॥६॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्वान् राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे कोई बलवान् मनुष्य निर्बल मनुष्य के केशों का ग्रहण करके कंपाता और जैसे वायु सब लोकों का ग्रहण तथा चलायमान करके अपनी-अपनी परिधि में प्राप्त करते हैं, वैसे ही सब शत्रुओं को कम्पा और उनके स्थानों से चलायमान करके प्रजा की रक्षा करें॥६॥ ____

मोक्षमूलर साहिब का अर्थ कि हे मनुष्यो! तुम्हारे बीच में बड़ा कौन है तथा तुम आकाश वा पृथिवी लोक को कम्पाने वाले हो, जब तुम धारण किये हुए वस्त्र का प्रान्त भाग कंपने समान उनको कंपित करते होसायणाचार्य के कहे हुए अन्त शब्द के अर्थ को मैं स्वीकार नहीं करता, किन्तु विलसन आदि के कहे हुए को स्वीकार करता हूं। यह अशुद्ध और विपरीत है, क्योंकि इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजपुरुष शत्रुओं और अन्य मनुष्य, तृण, काष्ठ आदि को ग्रहण करके कंपाते हैं, वैसे वायु भी हैं, इस अर्थ का विद्वानों के सकाश से निश्चय करना चाहिये, इस प्रकार कहे हुए व्याख्यान से। जैसे सायणाचार्य का किया हुआ अर्थ व्यर्थ है, वैसा ही मोक्षमूलर साहिब का किया हुआ अर्थ अनर्थ है, ऐसा हम सब सज्जन लोग जानते हैं॥६॥

पुना राजप्रजाजनैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते॥

फिर वे राजा और प्रजाजन कैसे होने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।