ऋग्वेद 1.37.4

 प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे

दे॒वत्तं ब्रह्म गायत॥४॥

प्र। वः। शर्धाय। घृष्वये। त्वेषऽद्युम्नाय। शुष्मिणे। देवत्तम्। ब्रह्म। गायत॥४॥

पदार्थ:-(प्र) प्रीतार्थे (व:) युष्माकम् (शर्धाय) बलाय (घृष्वये) घर्षन्ति परस्परं संचूर्णयन्ति येन तस्मै (त्वेषद्युम्नाय) प्रकाशमानाय यशसे। द्युम्नं द्योततेर्यशो वान्नं वा। (निरु०५.५) (शुष्मिणे) शुष्यति बलयति येन व्यवहारेण स बहुर्विद्यते यस्मिँस्तस्मै। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः(देवत्तम्) यद्देवेनेश्वरेण दत्तं विद्वद्भिर्वाध्यापकेन तत् (ब्रह्म) वेदम् (गायत) षड्जादि स्वरैरालपत॥४॥ ____

अन्वयः-हे विद्वांसो मनुष्या! य इमे वायव: वो युष्माकं शर्धाय घृष्वये शुष्मिणे त्वेषाम्नाय सन्ति, तन्नियोगेन देवत्तं ब्रह्म यूयं गायत॥४॥

भावार्थ:-विद्वद्भिर्मनुष्यैरीश्वरोक्तान् वेदानधीत्य वायुगुणान् विदित्वा यशस्वीनि बलकारकाणि कर्माणि नित्यमनुष्टाय सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि देयानीति।।४।। ___

मोक्षमूलरोक्तिः येषां गृहेषु वायवो देवता आगच्छन्ति हे कण्वा! यूयं तेषामग्रे ता देवता स्तुत। ताः कीदृश्यः सन्ति। उन्मत्ता विजयवत्यो बलवत्यश्च। अत्र। ऋ०४.१७.२ इदमत्रप्रमाणमस्तीत्यशुद्धास्तियच्चात्र मन्त्रप्रमाणं दत्तं तत्रापि तदभीष्टोऽर्थो नास्तीत्यतः॥४॥

पदार्थ:-हे विद्वान् मनुष्यो! जो ये पवन (व:) तुम लोगों के (शर्धाय) बल प्राप्त करनेवाले (घृष्वये) जिसके लिये परस्पर लड़ते-भिड़ते हैं, उस (शुष्मिणे) अत्यन्त प्रशंसित बलयुक्त व्यवहार वाले (त्वेषद्युम्नाय) प्रकाशमान यश के लिये हैं, तुम लोग उनके नियोग से (देवत्तम्) ईश्वर ने दिये वा विद्वानों ने पढ़ाये हुए (ब्रह्म) वेद को (प्रगायत) अच्छे प्रकार षड्जादि स्वरों से स्तुतिपूर्वक गाया करो॥४॥

भावार्थ:-विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर के कहे हुए वेदों को पढ़, वायु के गुणों को जान और यश वा बल के कर्मों का अनुष्ठान करके सब प्राणियों के लिये सुख देवें।।४॥

मोक्षमूलर साहिब का अर्थ:- जिन के घरों में वायु देवता आते हैं, हे बुद्धिमान् मनुष्यो! तुम उनके आगे उन देवताओं की स्तुति करो तथा देवता कैसे हैं कि उन्मत्त विजय करने वा वेग वाले। इसमेंचौथे मण्डल सत्रहवें सूक्त दूसरे मन्त्र का प्रमाण है। सो यह अशुद्ध है, क्योंकि सब जगह पवनों की स्थिति के जाने-आने वाली क्रिया होने वा उनके सामीप्य के विना वायु के गुणों की स्तुति के सम्भव होने से और वायु से भिन्न वायु का कोई देवता नहीं हैं, इससे तथा जो मन्त्र का प्रमाण दिया है, वहाँ भी उनका अभीष्ट अर्थ इनके अर्थ के साथ नहीं है।।४।___

पुनरेतेषां योगेन किं किं भवतीत्युपदिश्यते।

फिर इनके योग से क्या-क्या होता है, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है।।