ऋग्वेद 1.36.14

 ो नः पाहो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह।

कृधी न ऊर्ध्वाञ्चराय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः॥१४॥

ऊर्ध्वः। नः। पहि। अंहसः। नि। केतुना। विश्वम्। सम्। अत्रिणम्। दह। कृधि। नः। ऊर्ध्वान्। चराय। जीवसे। विदाः। देवेषु। नः। दुवः॥१४॥

पदार्थ:-(अर्वः) सर्वोत्कृष्टः (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष (अंहसः) परपदार्थहरणरूपपापात्। अमेर्लक् च। (उणा०४.२१३)इत्यसुन् प्रत्ययो हुगागमश्च(नि) नितराम् (केतुना) प्रकृष्टज्ञानदानेन केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघ०३.९) (विश्वम्) सर्वम् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) अत्ति भक्षयत्यन्यायेन परपदार्थान् यः स शत्रुस्तम् (दह) भस्मी (कृधि) कुरु। अत्रान्येषामपीति संहितायां दीर्घः । (नः) अस्मान् (अर्ध्वान्) उत्कृष्टगुणसुखसहितान् (चरथाय) चरणाय (जीवसे) जीवितुम्। जीव धातोस्तुमर्थेऽसे प्रत्ययः (विदाः) लम्भय। अत्र लोडर्थे लेट। (देवेषु) विद्वत्स्वृतुषु वा। ऋतवो वै देवाः(शत०७.२.४.२६; तै०सं०५.४.११.४) (न:) अस्माकमस्मभ्यं वा (दुवः) परिचर्याम्॥१४॥ __

अन्वयः-हे सभापते! त्वं केतुना प्रज्ञादानेन नोंऽहसो निपाहि विश्वमत्रिणं शत्रु सन्दह ऊर्ध्वस्त्वं चरथाय न ऊर्ध्वान् कृधि देवेषु जीवसे नो दुवो विदाः॥१४॥

भावार्थ:-उत्कृष्टगुणस्वभावेन सभाध्यक्षेण राज्ञा राज्यनियमदण्डभयेन सर्वमनुष्यान् पापात् पृथक्कृत्य सर्वान् शत्रून् दग्ध्वा विदुषः परिषेव्य ज्ञानसुखजीवनवर्द्धनाय सर्वे प्राणिन उत्कृष्टगुणाः सदा सम्पादनीयाः॥१४॥

पदार्थ:-हे सभापते! आप (केतुना) बुद्धि के दान से (न:) हम लोगों को (अंहसः) दूसरे का पदार्थ हरणरूप पाप से (निपाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये (विश्वम्) सब (अत्रिणम्) अन्याय से दूसरे के पदार्थों को खाने वाले शत्रुमात्र को (संदह) अच्छे प्रकार जलाइये और (अर्ध्वः) सब से उत्कृष्ट आप (चरथाय) ज्ञान और सुख की प्राप्ति के लिये (नः) हम लोगों को (ऊर्ध्वान्) बड़े-बड़े गुण कर्म और स्वभाव वाले (कृधि) कीजिये तथा (न:) हमको (देवेषु) धार्मिक विद्वानों में (जीवसे) सम्पूर्ण अवस्था होने के लिये (दुवः) सेवा को (विदाः) प्राप्त कीजिये।।१४।

भावार्थ:-अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव वाले सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि राज्य की रक्षा नीति और दण्ड के भय से सब मनुष्यों को पाप से हटा सब शत्रुओं को मार और विद्वानों की सब प्रकार सेवा करके प्रजा में ज्ञान, सुख और अवस्था बढ़ाने के लिये सब प्राणियों को शुभगुणयुक्त सदा किया करें।।१४॥

पुनः तं प्रति प्रजासेनाजनाः किङ्किप्रार्थयेयुरित्युपदिश्यते।।

फिर उस सभाध्यक्ष राजा से प्रजा और सेना के जन क्या-क्या प्रार्थना करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है