ऋग्वेद 1.36.13

 ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता»

 ऊर्ध्वः वाजस्य सनिता यञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वया॑महे॥१३॥

ऊर्ध्वः। ऊँ इति। सु। नः। ऊतये। तिष्ठ। देवः। न। सविताऊर्ध्वः। वाजस्य। सनिता। यत्। अञ्जिऽभिःवाघऽभिः। विऽह्वयामहे॥ १३॥

पदार्थः-(ऊर्ध्वः) उच्चासने (ॐ) च (सु) शोभने। अत्र सोरुपसर्गस्यग्रहणं न किन्तु सुञो निपातस्य तेन इकः सुञिा (अष्टा०६.३.१३४) इति संहितायामुकारस्य दीर्घः। सुञः(अष्टा०८.३.१०७) इति मूर्धन्यादेशश्च। (न:) अस्माकम्। नश्च धातुस्थोरुषभ्यः। (अष्टा०८.४.२६) इति णत्वम्। (ऊतये) रक्षणाद्याय (तिष्ठ) अत्र व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (देवः) द्योतकः (न) इव (सविता) सूर्यलोकः (अर्ध्व:) उन्नतस्सन् (वाजस्य) संग्रामस्य (सनिता) सम्भक्ता सेवकः (यत्) यस्मात् (अञ्जिभिः) अञ्जसाधनानि प्रकटयद्भिः। सर्वधातुभ्य इन्। (उणा०४.१२३) इति कर्तरीन् प्रत्ययः। (वाघद्भिः) विद्वद्भिर्मेधाविभिःवाघत इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (विह्वयामहे) विविधैः शब्दैः स्तुमः॥१३॥

अन्वयः-हे सभापते! त्वं सविता देवो नेव नोऽस्माकमूतय ऊर्ध्वः सुतिष्ठ। ऊ चोर्ध्वः सन् वाजस्य सनिता भव, अतो वयमञ्जिभिघिद्भिस्सह त्वां विह्वयामहे॥१३॥

भावार्थ:-सूर्य्यवदुत्कष्टतेजसा सभापतिना संग्रामसेवने न दुष्टशत्रून्निवार्य सर्वेषां प्राणिनामूतये यज्ञसाधकैर्विद्वद्भिः सहात्युच्चासने स्थातव्यम्।।१३॥ ___

पदार्थ:-हे सभापते! आप (देवः) सबको प्रकाशित करनेहारे (सविता) सूर्य्यलोक के (न) समान (न:) हम लोगों की रक्षा आदि के लिये (ऊर्ध्वः) ऊंचे आसन पर (सुतिष्ठ) सुशोभित हूजिये (ॐ) और (ऊर्ध्वः) उन्नति को प्राप्त हुए (वाजस्य) युद्ध के (सविता) सेवने वाले हूजिये, इसलिये हम लोग (अञ्जिभिः) यज्ञ के साधनों को प्रसिद्ध करने तथा (वाघद्भिः) सब ऋतुओं में यज्ञ करने वाले विद्वानों के साथ (विह्वयामहे) विविध प्रकार के शब्दों से आप की स्तुति करते हैं।।१३।। ___

भावार्थ:-सूर्य के समान अति तेजस्वी सभापति को चाहिये कि संग्राम सेवन से दुष्ट शत्रुओं को हटा के सब प्राणियों की रक्षा के लिये प्रसिद्ध विद्वानों के साथ सभा में बीच में ऊंचे आसन पर बैठे।। १३॥

पुन: स कीदृश इत्याह॥

फिर वह सभापति कैसा होवे, यह अगले मन्त्र में कहा है।।