ऋग्वेद 1.36.10

 यं त्वा देवासो मनवे धुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन

यं कण्वो मेध्यातिथिर्धन॒स्पृत यं वृषा यमुपस्तुतः॥१०॥९॥

यम्त्वदेवासःमनवे। दधुः। इह। यजिष्ठम्। हव्यवाहन। यम्। कण्वः। मेध्य॑ऽअतिथिःधनऽस्पृतम्। यम्। वृषा। यम्। उपऽस्तुतः॥१०॥

पदार्थ:-(यम्) मननशीलम् (त्वा) त्वाम् (देवासः) विद्वांसः (मनवे) मननयोग्याय राजशासनाय (दधुः) दध्यासुःअत्र लिङर्थे लिट्। (इह) अस्मिन् संसारे (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् (हव्यवाहन) हव्यान्यादातुमर्हाणि वसूनि वहति प्राप्नोति तत्सम्बुद्धौ सभ्यजन (यम्) शिक्षितम् (कण्वः) मेधावीजन: (मेध्यातिथिः) मेध्यैरतिथिभियुक्तोऽध्यापकः (धनस्पृतम्) धनैर्विद्यासुवर्णादिभिः स्मृतः प्रीतः सेवितस्तम् (यम्) सुखस्य वर्षकम् (वृषा) विद्यावर्षक: (यम्) स्तोतुमर्हम् (उपस्तुतः) उपगतः स्तौति स उपस्तुतो विद्वान्अत्र स्तुधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्तः प्रत्ययः॥१०॥

अन्वयः-हे हव्यवाहन! यं यजिष्टं त्वा त्वां देवासो मनव इह दधुर्दधति। यं धनस्पृतं त्वा त्वां मेध्यातिथिः कण्वो दधे। यं त्वा त्वां वृषादधेयं त्वा त्वामुपस्तुतो दधे तं त्वां वयं सभापतित्वेनाङ्गीकुर्महे॥१०॥

भावार्थ:-अस्मिञ्जगति सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वांसोऽन्ये च श्रेष्ठपुरुषा मिलित्वा यं विचारशीलमादेयवस्तुप्रापकं शुभगुणाढ्यं विद्यासुवर्णादिधनयुक्तं सभ्यजनं राज्यशासनाय नियुज्युस्स एव पितृवत्पालको राजा भवेत्॥१०॥

पदार्थ:-हे (हव्यवाहन) ग्रहण करने योग्य वस्तुओं की प्राप्ति कराने वाले सभ्यजन! (यम्) जिस विचारशील (यजिष्ठम्) अत्यन्त यज्ञ करने वाले (त्वा) आप को (देवासः) विद्वान् लोग (मनवे) विचारने योग्य राज्य की शिक्षा के लिये (इह) पृथिवी में (दधुः) धारण करते (यम्) जिस शिक्षा पाये हुए (धनस्पृतम्) विद्या सुवर्ण आदि धन से युक्त आप को (मेध्यातिथि:) पवित्र अतिथियों से युक्त अध्यापक (कण्वः) विद्वान् पुरुष स्वीकार करता (यम्) जिस सुख की वृष्टि करने वाला (त्वा) आप को(वृषा) सुखों का फैलाने वाला धारण करता और (यम्) जिस स्तुति के योग्य आप को (उपस्तुतः) समीपस्थ सज्जनों की स्तुति करने वाला राजपुरुष धारण करता है, उन आप को हम लोग सभापति के अधिकार में नियत करते हैं।।१०॥

भावार्थ:-इस सृष्टि में सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्वान् और अन्य सब श्रेष्ठ चतुर पुरुष मिल के जिस विचारशील ग्रहण के योग्य वस्तुओं के प्राप्त कराने वाले शुभ गुणों से भूषित विद्या सुवर्णादि धनयुक्त सभा के योग्य पुरुष को राज्य शिक्षा के लिये नियुक्त करें, उसी पिता के तुल्य पालन करने वाला जन राजा होवे।।१०॥

पुनरेतैरग्न्यादिपदार्थाः कथमुपकर्त्तव्याः॥

फिर सभाध्यक्षादि लोग अग्नि आदि पदार्थों से कैसे उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।