ऋग्वेद 1.33.5

 परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्राय॑ज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः।

प्र यदिवो हरिवः स्थातरु निरव्रताँ अधर्मो रोदस्योः॥५॥१॥

परा। चित्। शीर्षा। ववृजुः। ते। इन्द्र। अय॑ज्वानः। यज्वऽभिः। स्पर्धमानाः। प्रा यत्। दिवः। हुरिऽवः। स्थातःउग्र। निःअव्रतान्अधमः। रोदस्योः॥५॥

पदार्थ:-(परा) दूरीकरणे (चित्) उपमायाम् (शीर्षा) शिरांसि। अत्र अचि शीर्षः(अष्टा०६.१.६२) इति शीर्षादेशः । शेश्छन्दसि ब० इति शेर्लोपः। (ववृक्षुः) त्यक्तवन्तः (ते) वक्ष्यमाणाः (इन्द्र) शत्रुविदारयितः शूरवीर (अयज्वान:) यज्ञानुष्ठानं त्यक्तवन्तः (यज्वभिः) कृतयज्ञानुष्ठानैः सह (स्पर्द्धमानाः) ईर्ष्णकाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) यस्मात् (दिवः) प्रकाशस्य (हरिवः) हरयोऽश्वहस्त्यादयः प्रशस्ताः सेनासाधका विद्यन्ते यस्य स हरिवाँस्तत्सम्बुद्धौ (स्थातः) यो युद्धे तिष्ठतीति तत्सम्बुद्धौ (उप्र) दुष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत। (नि:) नितराम् (अव्रतान्) व्रतेन सत्याचरणेन हीनान् मिथ्यावादिनो दुष्टान्। (अधमः) शब्दैः शिक्षय (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः। रोदस्योरिति द्यावापृथिव्यो मसु पठितम्। (निघं०३.३०)॥५॥

अन्वयः-हे हरिवो युद्धं प्रति प्रस्थातरुग्रेन्द्र यथा प्रस्थातोगेन्द्र! सूर्यलोको रोदस्योः प्रकाशाकर्षणे कुर्वन् वृत्रावयवाँश्छित्वा पराधमति तथैव त्वं यद्येऽयज्वानो यज्वभिः स्पर्द्धमानाः सन्ति, ते यथा शीर्षा शिरांसि ववृजुस्त्यक्तवन्तो भवेयुस्तानव्रतांस्त्वं निरधमो नितरां शिक्षय दण्डय॥५॥ ___

भावार्थः-अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो दिनं पृथिव्यादिकं प्रकाशं च धृत्वा वृत्रान्धकारं निवार्य वृष्टया सर्वान् प्राणिनः सुखयति, तथैव मनुष्यैः सद्गुणान् धृत्वाऽसद्गुणांस्त्यक्त्वाऽधार्मिकान् दण्डयित्वा विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशवर्षणेन सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा सत्यराज्यं प्रचारणीयमिति।।५।।

पदार्थ:-हे (हरिवः) प्रशंसित सेना आदि के साधन घोड़े हाथियों से युक्त (प्रस्थातः) युद्ध में स्थित होने और (उप्र) दुष्टों के प्रति तीक्ष्णव्रत धारण करने वाले (इन्द्र) सेनापति! (चित्) जैसे हरण आकर्षण गुण युक्त किरणवान् युद्ध में स्थित होने और दुष्टों को अत्यन्त ताप देने वाला सूर्यलोक (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी का प्रकाश और आकर्षण करता हुआ मेघ के अवयवों को छिन्न-भिन्न कर उसका निवारण करता है, वैसे आप (यत्) जो (अयज्वानः) यज्ञ के न करने वाले (यज्वभिः) यज्ञ करने वालों से (स्पर्द्धमानाः) ईर्षा करते हैं, वे जैसे (शीर्षाः) अपने शिरों को (ते) तुम्हारे सकाश से(ववृजुः) छोड़ने वाले हों, वैसे उन (अव्रतान्) सत्याचरण आदि व्रतों से रहित मनुष्यों को (निरधमः) अच्छे प्रकार दण्ड देकर शिक्षा कीजिये।।५।__

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य दिन और पृथिवी और प्रकाश को धारण तथा मेघ रूप अन्धकार को निवारण करके वृष्टि द्वारा सब प्राणियों को सुख युक्त करता है, वैसे ही मनुष्यों को उत्तम-उत्तम गुणों का धारण खोटे गुणों को छोड़ धार्मिकों की रक्षा और अधर्मी दुष्ट मनुष्यों को दण्ड देकर विद्या, उत्तम शिक्षा और धर्मोपदेश की वर्षा से सब प्राणियों को सुख देके सत्य के राज्य का प्रचार करना चाहिये।।५॥

पुनस्तस्य किं कृत्यमित्युपदिश्यते॥ ___

फिर उसका क्या कार्य है, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है।