ऋग्वेद 1.33.3

 नि सर्वसेन इषुधीरसक्त समर्यो गा अजत यस्य वष्टि

चोकूयर्माण इन्द्र भूरि वाम मा पणि रस्मदधि प्रवृद्ध॥३॥

नि। सर्वऽसेनः। दृषुऽधीन्। असक्त। सम्। अर्यः। गाः। अजति। यस्य। वष्टि। चोकूयाणः। इन्द्र। भूरि वामम्। मा। प॒णिः। भूः। अस्मत्। अधि। प्रऽवृद्ध॥३॥

पदार्थः-(नि) नितराम् (सर्वसेनः) सर्वा: सेना यस्य सः (इषुधीन्) इषवो बाणा धीयन्ते येषु तान् (असक्त) सज्ज। अत्र सज्ज धातोः बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। लोडर्थे लङ् व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (सम्) संयोगे (अर्यः) वणिग्जनःअर्यः स्वामिवैश्ययोः(अष्टा०३.१.१०३) इत्ययं शब्दो निपातितः(गाः) पशून् (अजति) प्राप्य रक्षति (यस्य) पुरुषस्य (वष्टि) प्रकाशते (चोकूयमाणः) सर्वानाप्रावयन्। स्कुञ् आप्रवण इत्यस्य यङन्तं रूपम् (इन्द्र) शत्रूणां दारयित: (भूरि) बहु। भूरीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (वामम्) वमत्युद्गिरति येन तम्। टुवमु उद्गिरणेऽस्माद्धातोः हलश्च इति घञ्। उपधावृद्धिनिषेधे प्राप्ते । अनाचमिकमिवमीनामिति वक्तव्यम्(अष्टा०वा०७.३.३४) इति वार्त्तिकेन वृद्धिः सिद्धा। (मा) निषेधे (पणिः) सत्यव्यवहारः (भूः) भव। अत्र लोडर्थे लुङ् न माड्योग (अष्टा०६.४.७४) इत्यडभावः। (अस्मत्) स्पष्टार्थम् (अधि) उपरिभावे (प्रवृद्ध) महोत्तमगुणविशिष्ट।।३।।

अन्वयः-हे अधिप्रवृद्धेन्द्र! सर्वसेनः पणिश्चोष्यमाणस्त्वं भूरीषुधीन् धृत्वार्यो गाः भूरि समजतीव न्यसक्त सज्जास्मद् वामं मा भूर्यस्माद्यस्य भवतः प्रतापो वष्टि विजयी च भवेः॥३॥ भावार्थ:-अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारःयथावणिग्जनेन गा: पालयित्वा चारयित्वा दुग्धादिना व्यवहारसिद्धिर्निष्पाद्यते यथेश्वरेणोत्पादितस्य महतः सूर्यलोकस्य किरणा बाणवच्छेदकत्वेन सर्वान् पदार्थान् प्रवेश्य वायुनोपर्यधो गमयित्वा सर्वान् सरसान् पदार्थान् कृत्वा सुखानि निष्पादयन्ति तथा राजा प्रजाः पालयेत्॥३॥

पदार्थ:-हे (अधिप्रवृद्ध) महोत्तमगुणयुक्त! (इन्द्र) शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले (सर्वसेनः) जिसके सब सेना (पणिः) सत्य व्यवहारी (चोकूयमाण:) सब शत्रुओं को भगाने वाले आप (भूरि) बहुत (इषुधीन्) जिसमें प्राण रक्खे जाते हैं, उसको घर के जैसे (अर्यः) वैश्य (गाः) पशुओं को (समजति) चलाता और खवाता है, वैसे (न्यसक्त) शत्रुओं को दृढ़बन्धनों से बाँध और (अस्मत्) हम से (वामम्) अरुचिकर कर्म के कर्त्ता (मा भूः) मत हो, जिससे (यस्य) आपका प्रताप (वष्टि) प्रकाशित हो और आप विजयी हों॥३॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि जैसे वैश्य गौओं का पालन तथा चराकर दुग्धादिकों से व्यवहार सिद्ध करता है और जैसे ईश्वर से उत्पन्न हुए सब लोकों में बड़े सूर्यलोक की किरणें बाण के समान छेदन करने वाली सब पदार्थों को प्रवेश करके वायु से ऊपर नीचे चलाकर रस सहित सब पदार्थों को करके सब सुख सिद्ध करते हैं, इसके समान राजा प्रजा का पालन करे॥३॥ _

इन्द्रशब्देन पुन: स एवार्थ उपदिश्यते॥

अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से उसी के गुणों का उपदेश किया है।