ऋग्वेद 1.32.6

 अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुढे महावीरं तुविवा॒धम॒जोषम्।

नातारीदस्य समृति वधानां सं सृजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः॥६॥

अयोद्धाऽईवा दुःऽमदः। आ। हि। जुह्वे। महाऽवीरम्। तुवाधम्। क्रुजीषम्। ना अतारीत्। अस्य। सम्ऽऋतिम्। वधानाम्। सम्। सृजानाः। पिपिषे। इन्द्रऽशत्रुः॥६॥

पदार्थः-(अयोद्धेव) न योद्धा अयोद्धा तद्वत् (दुर्मदः) दुष्टो मदो यस्य सः (आ) समन्तात् (हि) खलु (जुह्वे) आहूतवानस्मि। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इत्युवङादेशो न। (महावीरम्) महांश्चासौवीरश्च तमिव महाकर्षणप्रकाशादिगुणयुक्तं सूर्यलोकम् (तुविबाधम्) यो बहून् शत्रून् बाधते तम् (ऋजीषम्) उपार्जकम्। अत्र अर्जेरृज च। (उणा०४.२९) इत्यर्जधातोरीषन् प्रत्यय ऋजादेशश्च। (न) निषेधार्थे (अतारीत्) तरत्युल्लङ्घयति वा। अत्र वर्तमाने लुङ्। (अस्य) सूर्यलोकस्य (समृतिम्) सङ्गतिम् (वधानाम्) हननानाम् (सम्) सम्यगर्थे (रुजानाः) नद्यः। रुजाना इति नदीनामसु पठितम्। (निपं०१.१३) (पिपिष) पिष्टः । अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (इन्द्रशत्रुः) इन्द्रः शत्रुर्यस्य वृत्रस्य सः॥६॥ __

अन्वयः-यथा दुर्मदोऽयोद्धेवायं मेघ ऋजीषन्तु विबाधं महावीरमिन्द्रं सूर्यलोकमाजुह्वे यदा सर्वतो रुतवानिव हतोऽयमिन्द्रशत्रुः संपिपिणे स मेघोऽस्य इन्द्रस्य वधानां समृतिं नातारीत् समन्तानोल्लङ्क्तिवान् हि खल्वस्य वृत्रस्य शरीरादुत्पन्ना रुजानाः नद्यः पर्वतपृथिव्यादिकूलान् छिन्दन्त्यश्चलन्ति तथा सेनासु विराजमानोऽध्यक्षः शत्रुषु चेष्टेत॥६॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा मेघो जगत्प्रकाशाय प्रवर्त्तमानस्य सूर्य्यस्य प्रकाशमकस्मादुत्थायावृत्य च तेन सह युद्धयत इव प्रवर्त्ततेऽपितु सूर्य्यस्य सामर्थ्य नालं भवति। यदायं सूर्येण हतो भूमौ निपतति तदा तच्छरीरावयवेन जलेन नद्यः पूर्णा भूत्वा समुद्रं गच्छन्ति तथा राजा शत्रून् हत्वाऽस्तं नयेत्॥६॥

पदार्थ:-(दुर्मदः) दुष्ट अभिमानी (अयोद्धेव) युद्ध की इच्छा न करने वाले पुरुष के समान मेघ (ऋजीषम्) पदार्थों के रस को इकट्ठे करने और (तुविबाधम्) बहुत शत्रुओं को मारनेहारे के तुल्य (महावीरम्) अत्यन्त बलयुक्त शूरवीर के समान सूर्य्यलोक को (आजुह्वे) ईर्ष्या से पुकारते हुए के सदृश वर्त्तता है, जब उसको रोते हुए के सदृश सूर्य ने मारा तब वह मारा हुआ (इन्द्रशत्रुः) सूर्य का शत्रु मेघ (पिपिषे) सूर्य से पिस जाता है और वह (अस्य) इस सूर्य की (वधानाम्) ताड़नाओं के (समृतिम्) समूह को (नातारीत्) सह नहीं सकता और (हि) निश्चय है कि इस मेघ के शरीर से उत्पन्न हुई (रुजानाः) नदियाँ पर्वत और पृथिवी के बड़े-बड़े टीलों को छिन्न-भिन्न करती हुई बहती हैं, वैसे ही सेनाओं में प्रकाशमान सेनाध्यक्ष शत्रुओं में चेष्टा किया करे॥६॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मेघ संसार के प्रकाश के लिये वर्तमान सूर्य के प्रकाश को अकस्मात् पृथिवी से उठा और रोककर उस के साथ युद्ध करते हुए के समान वर्त्तता है तो भी वह मेघ सूर्य के सामर्थ्य का पार नहीं पाता, जब यह सूर्य मेघ को मारकर भूमि में गिरा देता है, तब उसके शरीर के अवयवों से निकले हुए जलों से नदी पूर्ण होकर समुद्र में जा मिलती है। वैसे राजा को उचित है कि शत्रुओं को मार के निर्मूल करता रहे।।६

पुन: स कीदृशो भूत्वा भूमौ पततीत्युपदिश्यते।।

फिर वह मेघ कैसा होकर पृथिवी पर गिरता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है