ऋग्वेद 1.31.5

त्वम॑ग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रृवायः

य आहुति पर वेदा वर्षट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविर्वाससि।। ५॥३२॥

त्वम्। अ॒ग्ने। वृषभः। पुष्टिऽवर्धनः। उद्यतऽनुचे। भवसि। श्रृवाय॑। यः। आऽहुतिम्। परि। वेद। वर्षट्कृतिम्। एकऽआयुः। अप्रै। विशः। आऽविाससि॥५॥ 

पदार्थ:-(त्वम्) (अग्ने) प्रज्ञेश्वर (वृषभः) यो वर्षति सुखानि सः (पुष्टिवर्धनः) पुष्टिं वर्धयतीति (उद्यतस्रुचे) उद्यता उत्कृष्टतया गृहीता युग् येन तस्मै यज्ञानुष्ठात्रे (भवसि) (श्रवाय्यः) श्रोतुं श्रावयितुं योग्यः। (यः) (आहुतिम्) समन्ताद्भूयन्ते गृह्यन्ते शुभानि यया ताम् (परि) सर्वतः (वेद) जानासि। अत्र व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वषट्कृतिम्) वषट् क्रिया क्रियते यया रीत्या ताम् (एकायुः) एकं सत्यगुणस्वभावमायुर्यस्य सः (अग्रे) वेदविद्याभिज्ञापक (विशः) प्रजाः (आविवासति)' समन्तात् परिचरति। विवासतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं०३.५) ।।५।। ___

अन्वयः-हे अग्ने जगदीश्वर! यस्त्वमग्रे उद्यतस्रुचे श्रवाय्यो वृषभ एकायुः पुष्टिवर्धनो भवसि यस्त्वं वषट्कृतिमाहुतिं परिवेद विज्ञापयसि, विशः सर्वाः प्रजा पुष्टिवृद्धया तं त्वां सुखानि च पर्याविवासति॥५॥

भावार्थ:-मनुष्यैरादौ जगत्कारणं ब्रह्म ज्ञानं यज्ञविद्यायां च याः क्रिया यादृशानि होतुं योग्यानि द्रव्याणि सन्ति तानि सम्यग्विदित्वैतेषां प्रयोगविज्ञानेन शुद्धानां वायुवृष्टिजलशोधनहेतूनां द्रव्याणामग्नौ होमे कृते सेविते चास्मिन् जगति महान्ति सुखानि वर्धन्ते, तैः सर्वाः प्रजा आनन्दिता भवन्तीति॥५॥

पदार्थ:-हे (अग्ने) यज्ञ क्रिया फलवित् जगद्गुरो परेश! जो (त्वम्) आप (अग्रे) प्रथम (उद्यतस्रुचे) दृक् अर्थात् होम कराने के पात्र को अच्छे प्रकार ग्रहण करने वाले मनुष्य के लिये (श्रवाय्यः) सुनने-सुनाने योग्य (वृषभः) और सुख वर्षाने वाले (एकायुः) एक सत्य गुण, कर्म, स्वभाव रूप समान युक्त तथा (पुष्टिवर्द्धनः) पुष्टि वृद्धि करने वाले (भवसि) होते हैं और (यः) जो आप (वषट्कृतिम्) जिसमें कि उत्तम-उत्तम क्रिर के जायें (आहुतिम्) तथा जिससे धर्मयुक्त आचरण किये जायें उसका विज्ञान कराते हैं (विशः) प्रजा लोग पुष्टि वृद्धि के साथ उन आप और सुखों को (पर्याविवासति) अच्छे प्रकार से सेवन करते हैं॥५॥

भावार्थ:-मनुष्यों को उचित है कि पहिले जगत् का कारण ब्रह्मज्ञान और यज्ञ की विद्या में जो क्रिया जिस-जिस प्रकार के होम करने योग्य पदार्थ हैं, उनको अच्छे प्रकार जानकर उनकी यथायोग्य क्रिया जानने से शुद्ध वायु और वर्षा जल की शुद्धि के निमित्त जो पदार्थ हैं, उनका होम अग्नि में करने से इस जगत् में बड़े-बड़े उत्तम-उत्तम सुख बढ़ते हैं और उनसे सब प्रजा आनन्द युक्त होती है॥५॥

अोश्वरोपासकः प्रजारक्षकाः किं कुर्यादित्युपदिश्यतेअोश्वरोपासकः प्रजारक्षकाः किं कुर्यादित्युपदिश्यते

अब ईश्वर का उपासक वा प्रजा पालनेहारा पुरुष क्या-क्या कृत्य करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।