ऋग्वेद 1.30.18

 समानयोज→ हि वा रथो दावमर्त्यः

समुद्रे अश्विनेयते॥१८॥

समानऽयोजनः। हिवाम्। रथः। दो। अमर्त्यः। समुद्र। अश्विना। ईयते॥१८॥

पदार्थ:-(समानयोजनः) समानं तुल्यं योजनं संयोगकरणं यस्मिन् स: (हि) खलु (वाम्) युवयोः (रथः) नौकादियानम् (दस्रौ) गमनकर्तारौ (अमर्त्यः) अविद्यमाना आकर्षका मनुष्यादयः प्राणिनो यस्मिन् सः (समुद्रे) जलेन सम्पूर्णे समुद्रेऽन्तरिक्षे वा (अश्विना) अश्विनौ क्रियाकौशलव्यापिनौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः । (ईयते) गच्छति।।१८।।

अन्वयः-हे दस्रो मार्गगमनपीडोपक्षेतारावश्विना अश्विनौ विद्वांसौ! यो वां युवयोर्हि खलु समानयोजनोऽमयो रथः समुद्र ईयते यस्य वेगेनाश्वावत्या शवीरया गत्या समुद्रस्य पारावारौ गन्तुं युवां शक्नुतस्तं निष्पादयतम्।।१८॥

भावार्थ:-अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (अश्वावत्या) (शवीरया) इति द्वयोः पदयोरनुवृत्तिः। मनुष्यैर्यानि महान्त्यग्निवाष्पजलकलायन्त्रः सम्यक् चालितानि नौकायानानि तानि निर्विघ्नतया समुद्रान्तं शीघ्र गमयन्ति। नैवेदृशैर्विना नियतेन कालेनाभीष्टं स्थानान्तरं गन्तुं शक्यत इति।।१८॥

पदार्थ:-हे (दस्रौ) मार्ग चलने की पीड़ा को हरने वाले (अश्विना) उक्त अश्वि के समान शिल्पकारी विद्वानो! (वाम्) तुम्हारा जो सिद्ध किया हुआ (समानयोजनः) जिसमें तुल्य गुण से अश्व लगाये हों (अमर्त्यः) जिसके खींचने में मनुष्य आदि प्राणि न लगे हों, वह (रथः) नाव आदि रथसमूह (समुद्रे) जल से पूर्ण सागर वा अन्तरिक्ष में (ईयते) (अश्वावत्या) वेग आदि गुणयुक्त (शवीरया) देशान्तर को प्राप्त कराने वाली गति के साथ समुद्र के पार और वार को प्राप्त कराने वाला होता है, उसको सिद्ध कीजिये।१८॥ ___

भावार्थ:-इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (अश्वावत्या) (शवीरया) इन दो पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों की जो अग्नि, वायु और जलयुक्त कलायन्त्रों से सिद्ध की हुई नाव हैं, वे निस्सन्देह समुद्र के अन्त को जल्दी पहुंचाती हैं, ऐसी-ऐसी नावों के विना अभीष्ट समय में चाहे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना नहीं हो सकता है।।१८॥ ___

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।।

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।