ऋग्वेद 1.30.19

 परि द्यामन्यदीयते॥१९॥

निअघ्न्यस्या मूर्धनि। चक्रम्। स्थस्या येमथुः। परि। द्याम्अन्यत्। ईयते।। १९॥

पदार्थ:-(नि) क्रियायोगे (अघ्न्यस्य) हन्तुं विनाशयितुमनर्हस्य यानस्य (मूर्धनि) उत्तमाङ्गेऽग्रभागे (चक्रम्) एकं यन्त्रकलासमूहम् (रथस्य) विमानादियानस्य (येमथुः) देशान्तरे यच्छथः । अत्र लडथै लिट। (परि) सर्वत: (द्याम्) दिवमुप-काशम् (अन्यत्) द्वितीयं चक्रम (ईयते) गमयति॥१९॥

अन्वयः-हे अश्विनौ! विद्याव्याप्तौ युवां यद्येकमघ्न्यस्य रथस्य मूर्द्धन्यपरं द्वितीयं च चक्रमधो रचयेतां तद्देते समुद्रमाकाशं वा नियेमथुर्नियच्छथ एताभ्यां द्वाभ्यां युक्तं यानं यथेष्टे मार्गे ईयते प्रापयति॥१९॥ __

भावार्थ:-शिल्पिभिः शीघ्रगमनार्थ यद्यद्यानं चिकीर्ण्यते तस्य तस्याग्रभाग एकं कलायन्त्रचक्रं सर्वकलाभ्रमणार्थं द्वितीयमपरभागे च रचनीयं तद्रचने जलाग्न्यादि प्रयोज्यतेन यानेन ससम्भारा: शिल्पिनो भूमिसमुद्रान्तरिक्षमार्गेण सुखेन गन्तुं शक्नुवन्तीति निश्चयः।।१९।।

पदार्थ:-हे अश्विनी विद्यायुक्त शिल्पि लोगो! तुम दोनों (अध्यस्य) जो कि विनाश करने योग्य नहीं है, उस (स्थस्य) विमान आदि यान के (मूर्धनि) उत्तम अङ्ग अग्रभाग में जो एक और (अन्यत्) दूसरा नीचे की ओर कलायन्त्र बनाओं तो वे दो चक्र समुद्र वा (द्याम्) आकाश पर भी (नियेमथुः) देशदेशान्तर में जाने के वास्ते बहुत अच्छे हों, इन दोनों चक्रों से जुड़ा हुआ रथ जहाँ चाहो वहाँ (ईयते) पहुंचाने वाला होता है।।१९।

भावार्थ:-शिल्पि विद्वानों को योग्य है कि जो शीघ्र जाने आने के लिये रथ बनाना चाहें तो उसके आगे एक-एक कलायन्त्रयुक्त चक्र तथा सब कलाओं के घूमने के लिये दूसरा चक्र नीचे भाग में रच के उसमें यन्त्र के साथ जल और अग्नि आदि पदार्थों का प्रयोग करें। इस प्रकार रचे हुए यान भारसहित शिल्पि विद्वान् लोगों को भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष मार्ग से सुखपूर्वक देशान्तर को प्राप्त करता है।॥१९॥

अथैतद्विद्योपयोग्योषसः काल उपदिश्यते।

अब इस विद्या के उपयोग करने वाले प्रात: काल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।