ऋग्वेद 1.30.17

 आश्विना॒वश्वावत्येषा यात शवीरया।

गोम॑द् दस्रा हिरण्यवत्॥१७॥

आअश्विनी। अश्वऽवत्या। दुषा। यातम्। शवीरयागोऽमत्। दा। हिरण्यऽवत्॥ १७॥

पदार्थ:-(आ) समन्तात् (अश्विनौ) यथा द्यावापृथिव्यादिकद्वन्द्व तथा विद्याक्रियाकुशलो (अश्वावत्या) वेगादिगुणसहितया। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रियविश्व० (अष्टा०६.३.१३१) अनेन पूर्वपदस्य दीर्घः। (इषाः) इष्यते यया। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (यातम्) प्रापयतम् (शवीरया) देशान्तरप्रापिकया गत्या शु गतावित्यस्माद्धातोर्बाहुलकादौणादिक ईरन् प्रत्ययः। (गोमत्) गाव: सुसुखप्रापिका बह्वयो विद्यन्ते यस्मिंस्तत्। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यतेअत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। दस्रा) दारिद्रयोपक्षयहेतू। अत्र सुपां सुलुग्० इति आकारादेश: (हिरण्यवत्) हिरण्यं सुवर्णादिकं बहुविधं साधने यस्य तत्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्॥१७॥

अन्वयः-हे विद्याक्रियाकुशलौ विद्वांसो शिल्पिनौ दस्रावश्विनौ सभासेनास्वामिनी द्यावापृथिव्याविवेषाभीष्टयाऽ श्ववत्या शवीरया गत्या हिरण्यवद् गोमद् यानमायातं समन्ताद्देशान्तरं प्रापयतम्॥१७॥

भावार्थ:-पूर्वोक्ताभ्यामश्विभ्यां चालितं यानं शीघ्रगत्या भूमौ जलेऽन्तरिक्षे च गच्छति तस्मादेतत्सद्यः साध्यम्॥१७॥

पदार्थ:-हे (दस्रा) दारिद्रयद्यविनाश कराने वाले (अश्विनौ) बिजली और पृथिवी के समान विद्या और क्रियाकुशल शिल्पी लोगो! तुम (इषा) चाही हुई (अश्वावत्या) वेग आदि गुणयुक्त (शवीरया) देशान्तर को प्राप्त कराने वाली गति के साथ (हिरण्यवत्) जिसके सुवर्ण आदि साधन हैं और (गोमत्) जिसमें सिद्ध किये हुए धन से सुख प्राप्त कराने वाली बहुत सी क्रिया है, उस रथ को (आयातम्) अच्छे प्रकार देशान्तर को पहुंचाइये।।१७।

भावार्थ:-पूर्वोक्त अश्वि अर्थात् सूर्य और पृथिवी के गुणों से चलाया हआ रथ शीघ्र गमन से भूमि, जल और अन्तरिक्ष में पदार्थों को प्राप्त करता है, इसलिये इसको शीघ्र साधना चाहिये।।१७॥

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में  किया है