आ यदुवः शतक्रतवा कामं जरितुणाम्।
ऋणोरक्षं न शचीभिः॥१५॥३०॥
आयत्दुवःशतक्रतो इति शतऽक्रतो। आकामम्। जरितॄणाम्। ऋणोः। अक्षम्नशचीभिः॥१५॥
पदार्थ:-(आ) समन्तात् (यत्) वक्ष्यमाणम् (दुवः) परिचरणम् (शतक्रतो) शतविधप्रज्ञाकर्मयुक्त सभेश राजन् (आ) अभितः पूर्त्यर्थे (कामम्) काम्यते यस्तम्। (जरितृणाम्) गुणकर्मस्तावकानाम् (ऋणोः) प्रापयसि। अस्यापि सिद्धिः पूर्ववत् (अक्षम्) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम् (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः॥१५॥
अन्वयः-हे शतक्रतो सभापते! त्वं जरितृभिः यत्तव दुवः परिचरणं तत् प्राप्य शचीभिः शकटार्हकर्मभिरक्षं न इव तेषां जरितॄणां कामं आऋणोः तदनुकूलं प्रापयसि।।१५।।
भावार्थ:- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभास्वामी राजा विद्वत्सेवनं विद्यार्थिनामभीष्टं पूरयति तथा परमेश्वरस्य सेवनं धार्मिकाणां जनानां सर्वमभीष्टं प्रापयति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैस्तत् सेवनीयमिति॥१५॥
पदार्थ-हे (शतक्रतो) अनेकविध विद्या बुद्धि वा कर्मयुक्त राजसभा स्वामिन्! आप स्तुति करने वाले धार्मिक जनों से (तत्) जो आप का (दुवः) सेवन है, उस को प्राप्त होकर (शचीभिः) रथ के योग्य कर्मों से (अक्षम्) उसकी धुरी के (न) समान उन (जरितॄणाम्) स्तुति करने वाले धार्मिक जनों की (कामम्) कामनाओं को (आ) (ऋणोः) अच्छी प्रकार पूरी करते हो।।१५॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों का सेवन विद्यार्थियों का अभीष्ट अर्थात् उनकी इच्छा के अनुकूल कामों को पूरा करता है, वैसे परमेश्वर का सेवन धार्मिक सज्जन मनुष्यों का अभीष्ट पूरा करता है। इसलिये उनको चाहिये कि परमेश्वर की सेवा नित्य करें।।१५॥
पुन: स सभाध्यक्षः कीदृशः किं करोतीत्युपदिश्यते।
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा और क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।