ऋग्वेद 1.30.14

 आ घ त्वाान्त्माप्तः स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः

ऋणोरक्षं न चक्रयोः॥१४॥

आ। घ। त्वाऽवान्। त्मना। आप्तः। स्तोतृऽभ्यः। धृष्णो इति। यानः। ऋणोः। अक्षम्। नचक्रयोः॥ १४॥

पदार्थ:-(आ) अभ्यर्थे (घ) एव (त्वावान्) त्वादृशः। अत्र वतुप् प्रकरणे युष्मदस्मद्भयां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०५.२.३९) इति सादृश्यार्थे वतु। (त्मना) आत्मनामन्त्रेष्वाड्योदरात्मनः। (अष्टा०६.४.१४१) इत्याकारलोपः। (आप्तः) सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो जनेभ्यः। गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यां चेष्टायामनध्वनि। (अष्टा० २.३.१२) इति चतुर्थी (इयानः) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता। अत्रेङ्गतावित्यस्मात्। छन्दसि लिट्। (अष्टा०३.२.१०५) इति लिट। लिटः कानज्वा। (अष्टा०३.२.१०६) इति कानच्। (ऋणो:) प्राप्नोति। अत्र लडथे लङ्। बहुलं छन्दसि इत्यडभावश्च। (अक्षम्) धूः (न) इव (चक्रयोः) रथाङ्गयोः। अत्र कृञ् धातोः आदृगमहनजनः० (अष्टा०३.२.१७१) इति किप्रत्ययः।।१४।

अन्वयः-हे धृष्णो अति प्रगल्भ सभाध्यक्ष! त्मनाप्त इयानस्त्वावान् त्वं घ त्वमेवासि यस्त्वं चक्रयोरक्षं न इव स्तोतृभ्यः स्तावकेभ्य आऋणोः स्तावकान् आप्नोसीति यावत्॥१४॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः प्रतीपालङ्कारश्च। यथा चक्रया— रथधारिका सती परिभ्रमणेनापि स्वस्मिन्नैव स्थापनी रथस्य देशान्तरप्रापिका भवति। तथैव सकलगुणकर्मस्वभावाभिव्याप्तस्त्वमेतत्सर्वन्नियच्छसीति॥१४॥ ___

पदार्थ:-हे (धृष्णो) अति धृष्ट (त्मना) अपनी कुशलता से (आप्तः) सर्व विद्यायुक्त सत्य के उपदेश करने और (इयानः) राज्य को जानने वाले राजन्! (त्वावान्) आप से (घ) आप ही हो जो आप (चक्रयाः) रथ के पहियों की (अक्षम्) धुरी के (न) समान (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने वालों को (आऋणोः) प्राप्त होते हो॥१४॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार और प्रतीपालङ्कार हैं। जैसे पहियों की धुरी रथ को धारण करने वाली घूमती भी अपने ही में ठहरी सी रहती है और रथ को देशान्तर में प्राप्त करने वाली होती है, वैसे ही आप राज्य को व्याप्त होकर यथायोग्य नियम में रखते हो।१४॥ _____

पुनस्तत्सेवनात् किं फलमित्युपदिश्यते॥

फिर उसके सेवन से क्या फल होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।