ऋग्वेद 1.28.8

 ता नौ अ॒द्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः।

इन्द्राय मधुमत्सुतम्॥८॥

ता। नः। अद्या वनस्पती इति। ऋष्वौ। ऋष्वेभिः। सोतृऽभिः। इन्द्राय। मधुऽमत्। सुतम्॥ ८॥

पदार्थ:-(ता) तो मुसलोलूखलाख्योअत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (न:) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन् दिने (वनस्पती) काष्ठमयो (ऋष्वौ) महान्तौ। ऋष्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (ऋष्वेभिः) महद्भिर्विद्वद्भिः। बहुलं छन्दसि इति भिस्स ऐस् न। (सोतृभिः) अभिषवकरणकुशलैः (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्रापकाय व्यवहाराय (मधुमत्) मधवो मधुरादयः प्रशस्ता गुणा विद्यते यस्मिन् तत्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (सुतम्) सम्पादितुं वस्तु॥८॥

अन्वयः-यो सोतृभिष्वी वनस्पती सम्पादितौ स्तो यो नोऽस्माकमिन्द्रायाद्या मधुमद्वस्तु सुतं सम्पादनहेतुभवतस्तो सर्वेः सम्पादनीयौ।८।।

भावार्थ:-यथा पाषाणस्य मुसलोलूखलानि भवन्ति, तथैव काष्ठायः पित्तलरजतसुवर्णादीनामपि क्रियन्ते, तैः श्रेष्ठेरोषधाभिषवादीन् साधयेयुरिति॥८॥

पदार्थ:-जो (सोतृभिः) रस खींचने में चतुर (ऋष्वेभिः) बड़े विद्वानों ने (ऋष्वौ) अतिस्थूल (वनस्पती) काठ के उखली-मुसल सिद्ध किये हों, जो (न:) हमारे (इन्द्राय) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाले व्यवहार के लिये (अद्य) आज (मधुमत्) मधुर आदि प्रशंसनीय गुण वाले पदार्थों को (सुतम्) सिद्ध करने के हेतु होते हों (ता) वे सब मनुष्यों को साधने योग्य हैं।।८।

भावार्थ:-जैसे पत्थर के मूसल और उखली होते हैं, वैसे ही काष्ट, लोहा, पीतल, चाँदी, सोना तथा औरों के भी किये जाते हैं, उन उत्तम उलूखल मुसलों से मनुष्य औषध आदि पदार्थों के अभिषव अर्थात् रस आदि खींचने के व्यवहार करें।।८।

पुनस्ताभ्यां कि कि साधनीयमित्युपदिश्यते।।

फिर वे कैसे करने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।