ऋग्वेद 1.26.8

 प्रियो नौ अस्तु विश्पति॒र्होता मन्द्रो वरेण्यः

प्रियाः स्व॒ग्नयो वयम्॥७॥

प्रियः। नः। अस्तु। विश्पतिः। होता। मुन्द्रः। वरेण्यः। प्रियाः। सुऽअ॒ग्नयः। वयम्।। ७॥

पदार्थः-(प्रियः) प्रीतिविषयः (न:) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालक: सभापती राजा। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज० (अष्टा०८.२.३६) इति षत्वं न भवति (होता) यज्ञसम्पादकः (मन्द्रः) स्तोतुमर्हो धार्मिकः। अत्र स्फायितञ्चिवञ्चि० (उणा०२.१३) इति रक्प्रत्ययः(वरेण्यः) स्वीकर्तुं योग्यः (प्रियाः) राज्ञः प्रीतिविषयाः। (स्वग्नयः) शोभन: सुखकारकोऽग्निः सम्पादितो यैस्ते (वयम्) प्रजास्था मनुष्याः॥७॥ ___

अन्वयः-हे मानवा! यथा स्वग्नयो वयं राजप्रियाः स्मो यथा होता मन्द्रो वरेण्यो विश्पतिर्नः प्रियोऽस्ति तथाऽन्योऽपि प्रियोऽस्तु॥७॥

भावार्थ:-यथा वयं सर्वैः सह सौहार्देन व महेऽस्माभिः सह सर्वे वर्तेरेस्तथा यूयमपि वर्तध्वम्॥७॥

पदार्थ:-हे मनुष्यो! जैसे (स्वग्नयः) जिन्होंने अग्नि को सुखकारक किया है, वे हम लोग (प्रियाः) राजा को प्रिय हैं, जैसे (होता) यज्ञ का करने-कराने (मन्द्रः) स्तुति के योग्य धर्मात्मा (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य विद्वान् (विश्पति:) प्रजा का स्वामी सभाध्यक्ष (न:) हम को प्रिय है, वैसे अन्य भी मनुष्य हों।॥७॥

भावार्थ:-जैसे हम लोग सब के साथ मित्रभाव से वर्त्तते और ये सब लोग हम लोगों के साथ मित्रभाव और प्रीति से सब लोग वर्त्तते हैं, वैसे आप लोग भी होवें।।७॥

पुनस्ते कथं वर्तेरन्नित्युपदिश्यते॥

फिर वे कैसे वर्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।