ऋग्वेद 1.26.9

 स्व॒ग्नयो हि वार्य देवासो दधिरे च नः।

स्वग्नयो मनामहे॥८॥

सुऽअ॒ग्नयः। हि। वार्यम्। देवासः। दधिरे। च। नःसुऽअ॒ग्नयः। मनामहे॥८॥

पदार्थ:-(स्वग्नयः) शोभनोऽग्निर्येषां ते मनुष्याः पृथिव्यादयो वा (हि) खलु (वार्यम्) वरितुमर्ह पदार्थसमूहम् (देवास:) दिव्यगुणयुक्ता विद्वांसः। अत्र आज्जसेरसुक् (अष्टा०७.१.५०) इत्यसुगागमः(दधिरे) हितवन्तः (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (स्वग्नयः) ये शोभनानुष्ठानतेजोयुक्ताः (मनामहे) विजानीयाम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्॥८॥

अन्वयः-यथा स्वग्नयो देवासः पृथिव्यादयो वा नोऽस्मभ्यं वार्य दधिरे हितवन्तस्तथा वयमपि स्वग्नयो भूत्वैतेभ्यो विद्यासमूहं मनामहे विजानीयाम।।८।

भावार्थ:-अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरस्मिन् जगति यावन्तः पदार्था ईश्वरेणोत्पादितास्तेषां विज्ञानाय विद्यां सम्पाद्य कार्यसिद्धिः कार्येति।।८।।

पदार्थ:-जैसे (स्वग्नयः) उत्तम अग्नियुक्त (देवासः) दिव्यगुण वाले विद्वान् (च) वा पृथिवी आदि पदार्थ (नः) हम लोगों के लिये (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे हम लोग (स्वग्नयः) अग्नि के उत्तम अनुष्ठान युक्त होकर इन्हों से विद्या समूह को (मनामहे) जानते हैं, वैसे तुम भी जानो।।८

भावार्थ:-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि ईश्वर ने इस संसार में जितने पदार्थ उत्पन्न किये हैं, उनके जानने के लिये विद्याओं का सम्पादन करके कार्यों की सिद्धि करें॥८॥

पुनः स किमर्थं याचनीयो मनुष्यैश्च परस्परं कथं वर्तितव्यमित्युपदिश्यते॥

फिर किसलिये उस ईश्वर की प्रार्थना करना और मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्तना चाहिये, इस __विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।