ऋग्वेद 1.26.7

 यच्चिद्धि शव॑ता ता देवंदैवं यजामहे

त्वे इद् धूयते हविः॥६॥

यत्। चित्। हि। शश्व॑ता। तना। देवम्ऽदेवम्। यजामहेत्वे इतिइत्। हूयते। हविः॥६॥

पदार्थ:-(यत्) वक्ष्यमाणम् (चित्) अपि (हि) खलु (शश्वता) अनादिना कारणेन (तना) विस्तृतेन (देवंदेवम्) विद्वांसं विद्वांसं पृथिव्यादिदिव्यगुणं पदार्थ पदार्थ वा। अत्र वचनव्यत्ययो वीप्सा च(यजामहे) सङ्गच्छामहे (त्वे) तस्मिन् (इत्) एव (हूयते) प्रक्षिप्यते (हविः) होतव्यं द्रव्यम्॥६॥

अन्वयः-हे नरो! यथा वयं शश्वता तना कारणेनेदेव सहितमुत्पन्नं यं देवंदेवं चिदपि यजामहे सङ्गच्छामहे त्वे हि खलु हविहूयते तथा यूयमपि जुहोत।।६॥

भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वा अस्मिन् जगति यावन्तो दृश्यादृश्याः पदार्थाः सन्ति, ते सर्व अनादिना विस्तृतेन कारणेनोत्पद्यन्त इति बोध्यम्॥६॥

पदार्थ:-हे मनुष्य लोगो! जैसे हम लोग (यत्) जिससे ये (शश्वता) अनादि (तना) विस्तारयुक्त कारण से (इत्) ही उत्पन्न हैं, इससे उन (देवंदेवम्) विद्वान् विद्वान् और सब पृथिवी आदि दिव्यगुण वाले पदार्थ पदार्थ को (चित्) भी (यजामहे) सङ्गत अर्थात् सिद्ध करते हैं (त्वे) उसमें (हि) ही (हविः) हवन करने योग्य वस्तु (हूयते) छोड़ते हैं, वैसे तुम भी किया करो॥६॥

भावार्थ:-यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस संसार में जितने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष पदार्थ हैं, वे सब अनादि अति विस्तार वाले कारण से उत्पन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये॥६॥

__पुनरस्माभिः परस्परं कथं वर्त्तिव्यमित्युपदिश्यते॥

फिर हम लोगों को परस्पर किस प्रकार वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है