ऋग्वेद 1.24.7

 उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पथामन्तवा उ।

अपडे पादा प्रतिधातवेऽकतापवक्ता हृदयविधश्चित्॥८॥

उरुम्॥ हि। राजा। वरुणः। चकार। सूर्याय। पाम्। अनु। एतवै। ऊम्। इति। अपदै। पार्दा प्रतिऽधातवे। अकः उत। अपऽवक्ता। हृदयाऽविधः। चित्॥ ८॥

पदार्थः-(उरुम्) विस्तीर्णम् (हि) चार्थे (राजा) प्रकाशमानः परमेश्वरः प्रकाशहेतुर्वा (वरुणः) वरः श्रेष्ठतमो जगदीश्वरो वरत्वहेतुर्वायुर्वा (चकार) कृतवान् (सूर्याय) सूर्यस्य। अत्र चतुर्थ्यर्थ बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.३.६२) अनेन षष्टीस्थाने चतुर्थी। (पन्थाम्) मार्गम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेतिनकारलोपः। (अनु) अनुकूलार्थे (एतवै) एतुं गन्तुम्। अत्रेणधातोः कृत्यार्थे तवैके० अनेन तवै प्रत्ययः। (उ) वितर्के (अपदे) न विद्यन्ते पदानि चिह्नानि यस्मिन् तस्मिन्नन्तरिक्षे (पादा) पद्यन्ते गम्यन्ते याभ्यां गमनागमनाभ्यां तौअत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (प्रतिधातवे) प्रतिधातुम्। अत्र तुमर्थे सेसेन० अनेन तवेन्प्रत्ययः। (अक:) कृतवान्। अत्र मन्त्रे घसह्वरण० इति च्लेलृक्। (उत) अपि (अपवक्ता) विरुद्धवक्ता वाचयिता वाऽस्ति तस्य (हृदयाविधः) हृदयं विध्यति तस्याधर्मस्याधार्मिकस्य शत्रोर्वा। अत्र नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु क्वौ। (अष्टा०६.६.११६) अनेन दीर्घः। (चित्) इव॥८॥ ___

अन्वयः-हृदयाविधोऽपवक्ताऽपवाचयिता शत्रुरस्ति तस्य चिदिव यो वरुणौ राजा जगद्धाता जगदीश्वरो वायुर्वा सूर्याय सूर्यस्यान्वेतव उहं पन्थां चकारोताप्यपदे पादा प्रतिधातवे सूर्य्यमक उ इति वितर्के सर्वस्यैतद्विधत्ते स सर्वेरुपासनीय उपयोजनीयो वास्तीति निश्चेतव्यम्॥८॥

भावार्थ:-अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यः परमेश्वरः खलु यस्य महत: सूर्यलोकस्य भ्रमणार्थं महती कक्षां निर्मितवान् यो वायुनेन्धनेन प्रदीप्यते, य इमे सर्वे लोका अन्तरिक्षपरिधयः सन्ति, न च कस्याचिल्लोकस्य केनचिल्लोकान्तरेण सह सङ्गोऽस्ति, किन्तु सर्वेऽन्तरिक्षस्थाः सन्तः स्वं स्वं परिधि प्रति परिभ्रमन्त्येते सर्वे यस्येश्वरस्य वायोर्वाकर्षणधारणाभ्यां स्वं स्वं परिधिं विहायेतस्ततश्चलितुं न शक्नुवन्ति, नैव यस्मात् कश्चिदन्य एषां धर्तार्थोऽस्ति, यथा परमेश्वरोऽधार्मिकस्य वक्तुर्हृदयस्य विदारकोऽस्ति तथा प्राणोऽपि रोगाविष्टो हृदयस्य विदारकोऽस्ति, स सर्वेर्मनुष्यैः कथं नोपासनीय उपयोजनीयो भवेदिति बोध्यम्॥८॥

पदार्थ:-(चित्) जैसे (अपवक्ता) मिथ्यावादी छली दुष्ट स्वभावयुक्त पराये पदार्थ (हृदयाविधः) अन्याय से परपीड़ा करने हारे शत्रु को दृढ़ बन्धनों से वश में रखते हैं, वैसे जो (वरुणः) (राजा) अतिश्रेष्ठ और प्रकाशमान परमेश्वर वा श्रेष्ठता और प्रकाश का हेतु वायु (सूर्याय) सूर्य के (अन्वेतवै) गमनागमन के लिये (उरुम्) विस्तारयुक्त (पन्थाम्) मार्ग को (चकार) सिद्ध करते (उत) और (अपदे) जिसके कुछ भी चाक्षुष चिह्न नहीं है, उस अन्तरिक्ष में (प्रतिधातवे) धारण करने के लिये सूर्य के (पादा) जिनसे जाना-आना बने, उन गमन और आगमन गुणों को (अक:) सिद्ध करते हैं (उ) और जो परमात्मा सब का धर्ता (हि) और वायु इस काम के सिद्ध कराने का हेतु है, उसकी सब मनुष्य उपासना और प्राण का उपयोग क्यों न करें।।८॥ ___

भावार्थः-इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जिस परमेश्वर ने निश्चय के साथ जिस सब से बड़े सूर्य लोक के लिये बड़ी-सी कक्षा अर्थात् उसके घूमने का मार्ग बनाया है, जो इसको वायुरूपी ईंधन से प्रदीप्त करता और जो सब लोक अन्तरिक्ष में अपनी-अपनी परिधियुक्त हैं कि किसी लोक का किसी लोकान्तर के साथ संग नहीं है, किन्तु सब अन्तरिक्ष में ठहरे हुए अपनी-अपनी परिधि पर चारों और घूमा करते हैं और को आपस में जिस ईश्वर और वायु के आकर्षण और धारणशक्ति से अपनीअपनी परिधि को छोड़कर इधर-उधर चलने को समर्थ नहीं हो सकते तथा जिस परमेश्वर और वायु के विना अन्य कोई भी इनका धारण करने वाला नहीं है, जैसे परमेश्वर मिथ्यावादी अधर्म करने वाले से पृथक् है, वैसे प्राण भी हृदय के विदीर्ण करने वाले रोग से अलग है, उसकी उपासना वा कार्यों में योजना सब मनुष्य क्यों न करें।८॥

अथ यौ राजप्रजापुरुषौ स्तस्तौ कीदृशौ भवेतामित्युपदिश्यते।

अब जो राजा और प्रजा के मनुष्य हैं, वे किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है