ऋग्वेद 1.19.6

 ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते।

मरुद्भिरग्न आ गहि॥६॥

ये। नाकस्य। अधि। रोचने। दिवि। देवासः। आसते। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥६॥

पदार्थ:-(ये) पृथिव्यादयो लोका: (नाकस्य) सुखहेतोः सूर्य्यलोकस्य (अधि) उपरिभागे (रोचने) रुचिनिमित्ते (दिवि) द्योतनात्मके सूर्यप्रकाशे (देवासः) दिव्यगुणाः पृथिवीचन्द्रादयः प्रकाशिताः (आसते) सन्ति (मरुद्भिः) दिव्यगुणैर्देवैः सह (अग्ने) अग्निः प्रसिद्धः (आ) समन्तात् (गहि) सुखानि गमयति॥६॥

अन्वयः-ये देवासो नाकस्य रोचने दिव्यध्यासते तद्धारकैः प्रकाशकैर्मरुद्भि सहाग्नेऽयमग्निरागहि सुखानि प्रापयति॥६॥

भावार्थ:-सर्वे लोका ईश्वरस्यैव प्रकाशेन प्रकाशिताः सन्ति, परन्तु तद्रचितस्य सूर्यलोकस्य दीप्त्या पृथिवीचन्द्रादयो लोका दीप्यन्ते तैर्दिव्यगुणैः सह वर्त्तमानोऽयमग्निः सर्वकार्येषु योजनीय इति॥६॥

पदार्थ:-(ये) जो (देवास:) प्रकाशमान और अच्छे-अच्छे गुणों वाले पृथिवी वा चन्द्र आदि लोक (नाकस्य) सुख की सिद्धि करनेवाले सूर्य्य लोक के (रोचने) रुचिकारक (दिवि) प्रकाश में (अध्यासते) उन के धारण और प्रकाश करने वाले हैं, उन पवनों के साथ (अग्ने) यह अग्नि (आगहि) सुखों की प्राप्ति कराता है।॥६॥

भावार्थ:-सब लोक परमेश्वर के प्रकाश से प्रकाशवान् है, परन्तु उसके रचे हुए सूर्य्यलोक की दीप्ति अर्थात् प्रकाश से पृथिवी और चन्द्रलोक प्रकाशित होते हैं, उन अच्छे-अच्छे गुणवालों के साथ रहने वाले अग्नि को सब कार्यो में संयुक्त करना चाहिये॥६॥

पुनस्ते किंकर्महेतवः सन्तीत्युपदिश्यते।

फिर उक्त पवन किस कार्यों के हेतु होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है