ऋग्वेद 1.19.5

 ये शुभ्रा घोरवर्पस: सुक्षुत्रासौ रिशादसः

मरुद्भिरग्ने आ गहि॥५॥३६॥

ये। शुभ्राः। घोरऽवर्पसः। सुऽक्षत्रासः। रिशादसः। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥५॥

पदार्थ:-(ये) वायवः (शुभ्राः) स्वगुणैः शोभमानाः (घोरवर्पसः) घोरं हननशीलं वर्पो रूपं स्वरूपं येषां ते। वर्प इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (सुक्षत्रास:) शोभनं क्षत्रमन्तरिक्षस्थं राज्यं येषां ते (रिशादसः) रिशा रोगा अदसोऽत्तारो यैस्ते (मरुद्भिः) प्राप्तिहेतुभिः सह। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघ०५.५) अनेनात्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (अग्ने) भौतिकः (आ) आभिमुख्ये (गहि) प्रापयति॥५॥

अन्वयः-ये घोरवर्पसो रिशादसः सुक्षत्रासः शुभ्रा वायवः सन्ति तैर्मरुद्भिः सहाग्नेऽग्निरागहि कार्याणि प्रापयति॥५॥

भावार्थ:-ये यज्ञेन शोधिता वायवः सुराज्यकारिणो भूत्वा रोगान् घ्नन्ति ये चाशुद्धास्ते सुखानि नाशयन्ति, तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरग्निना वायोः शोधनेन सुखानि संसाधनीयानीति॥५॥

इति षट्त्रिंशो वर्गः समाप्तः॥

पदार्थः-(ये) जो (घोरपर्वसः) घोर अर्थात् जिनका पदार्थों को छिन्न-भिन्न करनेवाला रूप जो और (रिशादसः) रोगों को नष्ट करनेवाला (सुक्षत्रासः) तथा अन्तरिक्ष में निर्भय राज्य करनेहारे और(शुभ्राः) अपने गुणों से सुशोभित पवन हैं, उनके साथ (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) प्रकट होता अर्थात् कार्यसिद्धि को देता है।।५।

भावार्थ:-जो यज्ञ के धूम से शोधे हुए पवन हैं, वे अच्छे राज्य के करानेवाले होकर रोग आदि दोषों का नाश करते हैं और जो अशुद्ध अर्थात् दुर्गन्ध आदि दोषों से भरे हुए हैं, वे सुखों का नाश करते हैंइससे मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि में होम द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों को सिद्ध करें॥५॥

यह छत्तीसवां वर्ग पूरा हुआ

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।

फिर भी उक्त पवन कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है