ऋग्वेद 1.1.9

 राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्।

वर्धमान स्वे दम॥८॥

राजन्तम्अध्वराणाम्। गोपाम्। तस्या दीदिविम्। वर्धमानम्। स्वे। दम।। ८॥

पदार्थ:-(राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) पूर्वोक्तानां यज्ञानां धार्मिकाणां मनुष्याणां वा (गोपाम्) गाः पृथिव्यादीन् पाति रक्षति तम् (ऋतस्य) सत्यस्य सर्वविद्यायुक्तस्य वेदचतुष्टयस्य सनातनस्य जगत्कारणस्य वा। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) ऋत इति पदनामसु च। (निघं०५.४) (दीदिविम्) सर्वप्रकाशकम्। दिवो द्वे दीर्घश्चाभ्यासस्य। (उणा०४.५५) अनेन क्विन्प्रत्ययः। (वर्धमानम्) ह्रासरहितम् (स्वे) स्वकीये (दमे) दाम्यन्त्युपशाम्यन्ति दुःखानि यस्मिंस्तस्मिन् परमानन्दे पदे। दमुधातो: हलश्च। (अष्टा०३.३.१२१) अनेनाधिकरणे घञ्प्रत्ययः॥८॥

अन्वयः-वयं स्वे दमे वर्धमानं राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविं परमेश्वरं नित्यमुपैमसि।।८॥ भावार्थ:-परमात्मा स्वस्य सत्तायामानन्दे च क्षयाज्ञानरहितोऽन्तर्यामिरूपेण सर्वान् जीवान्सत्यमुपदिशन्नाप्तान् संसारं च रक्षन् सदैव वर्तते। एतस्योपासका वयमप्यानन्दिता वृद्धियुक्ता विज्ञानवन्तो भूत्वाऽभ्युदयनिः श्रेयसं प्राप्ताः सदैव वर्तामह इति।।८।

पदार्थान्वयभाषा:-(स्वे) अपने (दमे) उस परम आनन्द पद में कि जिसमें बड़े-बड़े दुःखों से छूट कर मोक्ष सुख को प्राप्त हुए पुरुष रमण करते हैं, (वर्धमानम्) सब से बड़ा (राजन्तम्) प्रकाशस्वरूप (अध्वराणाम्) पूर्वोक्त यज्ञादिक अच्छे-अच्छे कर्म धार्मिक मनुष्य तथा (गोपाम्) पृथिव्यादिकों की रक्षा (ऋतस्य) सत्यविद्यायुक्त चारों वेदों और कार्य जगत् के अनादि कारण के (दीदिविम्) प्रकाश करनेवाले परमेश्वर को हम लोग उपासना योग से प्राप्त होते हैं॥८॥

भावार्थ:-जैसे विनाश और अज्ञान आदि दोष रहित परमात्मा अपने अन्तर्यामि रूप से सब जीवों को सत्य का उपदेश तथा श्रेष्ठ विद्वान् और सब जगत् की रक्षा करता हुआ अपनी सत्ता और परम आनन्द में प्रवृत्त हो रहा है, वैसे ही परमेश्वर के उपासक भी आनन्दित, वृद्धियुक्त होकर विज्ञान में विहार करते हुए परम आनन्दरूप विशेष फलों को प्राप्त होते हैं।८।

स कान् क इव रक्षतीत्युपदिश्यते

वह परमेश्वर किस के समान किनकी रक्षा करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है