ऋग्वेद 1.1.8

  उप॑ त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।

नमो भरन्त एमसि॥७॥

उप। त्वाअग्ने। दिवेऽदिवे। दोषोऽवस्तः। धिया। वयम्। नमः। भरन्तः। आइमसि॥७॥ पदार्थ:-(उप) सामीप्ये (त्वा) त्वाम् (अग्ने) सर्वोपास्येश्वर (दिवेदिवे) विज्ञानस्य प्रकाशाय प्रकाशाय (दोषावस्तः) अहर्निशम्। दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। (निघ०१.७) रात्रेः प्रसङ्गाद्वस्त इति दिननामात्र ग्राह्यम्। (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (वयम्) उपासका: (नमः) नम्रीभावे (भरन्तः) धारयन्तः (आ) समन्तात् (इमसि) प्राप्नुमः ।।७॥

अन्वयः-हे अग्ने! वयं धिया दिवेदिवे दोषावस्तस्त्वा त्वां भरन्तो नमस्कुर्वन्तश्चोपैमसि प्राप्नुमः॥७॥

भावार्थ:-हे सर्वद्रष्टः सर्वव्यापिन्नुपासनाई! वयं सर्वकर्मानुष्ठानेषु प्रतिक्षणं त्वां यतो नैव विस्मरामः, तस्मादस्माकमधर्ममनुष्टातुमिच्छा कदाचिन्नैव भवति। कुतः? सर्वज्ञः सर्वसाक्षी भवान्सर्वाण्यस्मत्कार्याणि सर्वथा पश्यतीति ज्ञानात्।।७।पदार्थान्वयभाषा:-(अग्ने) हे सब के उपासना करने योग्य परमेश्वर ! हम लोग (दिवेदिवे) अनेक प्रकार के विज्ञान होने के लिये (धिया) अपनी बुद्धि और कर्मों से आपकी (भरन्तः) उपासना को धारण और (दोषावस्तः) रात्रिदिन में निरन्तर (नमः) नमस्कार आदि करते हुए (उपैमसि) आपके शरण को प्राप्त होते हैं।॥७॥

भावार्थ:-हे सब को देखने और सब में व्याप्त होनेवाले उपासना के योग्य परमेश्वर! हम लोग सब कामों के करने में एक क्षण भी आपको नहीं भूलते, इसी से हम लोगों को अधर्म करने में कभी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि जो सर्वज्ञ सब का साक्षी परमेश्वर है, वह हमारे सब कामों को देखता है, इस निश्चय से॥७॥ ____पुन: स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते

फिर भी वह परमेश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है।।