ऋग्वेद 1.9.5

 सं चौदय चित्रमर्वाग्रा/ इन्द्र वरेण्यम्।

असदित्त विभु प्रभु॥५॥१७॥

सम्। चोदय। चित्रम्। अर्वाक्। राधः। इन्द्र। वरेण्यम्। असत्। इत्। ते। विऽभु। प्रऽभु॥५॥

पदार्थ:-(सम्) सम्यगर्थे। समित्येकीभावं प्राह। (निरु०१.३) (चोदय) प्रेरय प्रापय (चित्रम्) चक्रवर्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादियोगेनाद्भुतम् (अर्वाक्) प्राप्त्यनन्तरमाभिमुख्येनानन्दकारकम् (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघ०२.१०) (इन्द्र) दयामयसर्वसुखसाधनप्रदेश्वर! (वरेण्यम्) वर्तुमर्हमतिश्रेष्ठम्। वृञ एण्यः। (उणा०३.९६) अनेन 'वृञ् वरणे' इत्यस्मादेण्यप्रत्ययः। (असत्) भवेत्। अस धातोर्लेटप्रयोगः। (इत्) एव (ते) तव (विभु) बहुसुखव्यापकम् (प्रभु) उत्तमप्रभावकारकम्॥५॥

अन्वयः-हे इन्द्र! ते तव सृष्टौ यद्याद्वरेण्यं विभु प्रभु चित्रं राधोऽसत् तत्तत्कृपयाऽर्वागस्मदाभिमुख्याय सञ्चोदय॥५॥ भावार्थ:-मनुष्यैरीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च सर्वस्यात्मशरीरसुखाय विद्यैश्वर्ययोः प्राप्तिरक्षणोन्नतिसन्मार्गदानानि सदैव संसेव्यानि, यतो दारिद्रयालस्यप्रभावदुःखाभावेन दिव्या भोगाः सततं वर्धरन्निति॥५॥

सप्तदशो वर्ग: समाप्तः॥

पदार्थ:-हे (इन्द्र) करुणामय सब सुखों के देनेवाले परमेश्वर! (ते) आपकी सृष्टि में जो-जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ (विभु) उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण (प्रभु) बड़े-बड़े प्रभावों का हेतु (चित्रम्) जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होनेवाला मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-अच्छे अद्भुत पदार्थ होते हैं, ऐसा (राधः) धन (असत्) हो, सो-सो कृपा करके हम लोगों के लिये (सञ्चोदय) प्रेरणा करके प्राप्त कीजिये॥५॥ ___

भावार्थः-मनुष्यों को ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से आत्मा और शरीर के सुख के लिये विद्या और ऐश्वर्य की प्राप्ति वा उनकी रक्षा और उन्नति तथा सत्यमार्ग वा उत्तम दानादि धर्म अच्छी प्रकार से सदैव सेवन करना चाहिये, जिससे दारिद्रय और आलस्य से उत्पन्न होनेवाले दुःखों का नाश होकर अच्छे-अच्छे भोग करने योग्य पदार्थों की वृद्धि होती रहे॥५॥ यह सत्रहवां वर्ग समाप्त हुआ। कथंभूतानस्मान्कुर्वित्युपदिश्यते। अन्तर्यामी ईश्वर हम लोगों को कैसे-कैसे कामों में प्रेरणा करे, इस विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है