ऋग्वेद 1.8.7

 ए॒वा ह्यस्य॒ काम्या॒ स्तोम उक्थं च शंस्या।

इन्द्राय सोमपीतये॥१०॥१६॥

एव। हि। अस्य। काम्या। स्तोमः। उक्थम्। च। शंस्या। इन्द्राय। सोमऽपीतये॥१०॥

पदार्थ:-(एव) अवधारणार्थे (हि) हेत्वपदेशे (अस्य) वेदचतुष्टयस्य (काम्या) कमनीये। अत्र सुपां सुलुगिति द्विवचनस्याकारादेशः । (स्तोमः) सामगानविशेषः स्तुतिसमूहः (उक्थम्) उच्यन्त ईश्वरगुणा येन तादृक्समूहम् (च) समुच्चयार्थेअनेन यजुरथर्वणोर्ग्रहणम्। (शंस्या) प्रशंसनीये कर्मणीअत्रापि सुपां सुलुगित्याकारादेशः(इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवते। परमात्मने (सोमपीतये) सोमानां सर्वेषां पदार्थानां पीति: पानं यस्य तस्मै। सह सुपा। (अष्टा० २.१.४) इति सामान्यतः समासः॥१०॥

अन्वयः-ये अस्य वेदचतुष्टयस्य काम्ये शंस्ये स्तोम उक्थं च स्तस्ते सोमपीतये इन्द्राय हि भजतः॥१०॥

भावार्थ:-यथास्मिन् जगति केनचिन्निर्मितान् पदार्थान् दृष्ट्वा तद्रचयितुः प्रशंसा भवति, तथैव सर्वेः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षैर्जगत्स्थैः सूर्यादिभिरुत्तमैः पदार्थेस्तद्रचनया च वेदेष्वीश्वरस्यैव धन्यवादाः सन्ति। नैतस्य समाधिका वा कस्यचित्स्तुतिर्भवितुमर्हतीति॥१०॥

एवं य ईश्वरस्योपसाकाः क्रियावन्तस्तदाश्रिता विद्ययात्मसुखं क्रियया च शरीरसुखं प्राप्य तेऽस्यैव सदा प्रशंसा कुर्युरित्यस्याष्टमस्य सूक्तोक्तार्थस्य सप्तमसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणचार्यादिभियूरोपाख्यदेशस्थैर्विलसनाख्यादिभिश्चायथावद्वर्णिता इति वेदितव्यम्॥

इत्यष्टमं सूक्तं षोडशश्च वर्गः समाप्तः॥

पदार्थः-(अस्य) जो-जो इन चार वेदों के (काम्ये) अत्यन्त मनोहर (शंस्ये) प्रशंसा करने योग्य कर्म वा (स्तोमः) स्तोत्र हैं, (च) तथा (उक्थम्) जिनमें परमेश्वर के गुणों का कीर्तन है, वे (इन्द्राय) परमेश्वर की प्रशंसा के लिये हैं। कैसा वह परमेश्वर है कि जो (सोमपीतये) अपनी व्याप्ति से सब पदार्थों के अंश-अंश में रम रहा है।।१०

भावार्थ:-जैसे इस संसार में अच्छे-अच्छे पदार्थों की रचना विशेष देखकर उस रचनेवाले की प्रशंसा होती है, वैसे ही संसार के प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध अत्युत्तम पदार्थों तथा विशेष रचना को देखकर ईश्वर को ही धन्यवाद दिये जाते हैं। इस कारण से परमेश्वर की स्तुति के समान वा उस से अधिक किसी की स्तुति नहीं हो सकती॥१०॥ ___

इस प्रकार जो मनुष्य ईश्वर की उपासना और वेदोक्त कर्मों के करनेवाले हैं, वे ईश्वर के आश्रित होके वेदविद्या से आत्मा के सुख और उत्तम क्रियाओं से शरीर के सुख को प्राप्त होते हैं, वे परमेश्वर हीकी प्रशंसा करते रहें। इस अभिप्राय से इस आठवें सूक्त के अर्थ की पूर्वोक्त सातवें सूक्त साथ सङ्गति जाननी चाहिये।

इस सूक्त के मन्त्रों के भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि और यूरोपदेशवासी अध्यापक आदि अङ्गरेज लोगों ने उलटे वर्णन किये हैं।।

यह आठवां सूक्त और सोलहवां वर्ग समाप्त हुआ।