ऋग्वेद 1.4.11

 यो रायोऽवनिर्महान्त्सुपारः सुन्वतः सखा। तस्मा इन्द्राय गायत॥१०॥८॥

यः। रायः। अवनिः। महान्। सुऽपारः। सुन्वतः। सखा। तस्मैइन्द्राय। गायत॥ १०॥

पदार्थ:-(यः) परमेश्वरः करुणामयः (रायः) विद्यासुवर्णादिधनस्य। राय इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अवनि:) रक्षकः प्रापको दाता (महान्) सर्वेभ्यो महत्तमः (सुपारः) सर्वकामानां सुष्टु पूर्तिकरः (सुन्वतः) अभिगतधर्मविद्यस्य मनुष्यस्य (सखा) सौहार्दैन सुखप्रदः (तस्मै) तमीश्वरम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवन्तम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुगिति द्वितीयैकवचनस्थाने चतुर्युकवचनम्। (गायत) नित्यमर्चत। गायतीत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघ०३.१४)॥१०॥

अन्वयः-हे विद्वांसो मनुष्याः ! यो महान्सुपारः सुन्वतः सखा रायोऽवनिः करुणामयोऽस्ति यूयं तस्मै तमिन्द्रायेन्द्रं परमेश्वरमेव गायत नित्यमर्चत।।१०।।

भावार्थ:-नैव केनापि केवलं परमेश्वरस्य स्तुतिमात्रकरणेन सन्तोष्टव्यं किन्तु तदाज्ञायां वर्तमानेन। स नः सर्वत्र पश्यतीत्यधर्मान्निवर्तमानेन तत्सहायेच्छुना मनुष्येण सदैवोद्योगे प्रवृतितव्यम्॥१०॥ एतस्य विद्यया परमेश्वरज्ञानात्मशरीरोग्यदृढत्वप्राप्या सदैव दुष्टानां विजयेन पुरुषार्थेन च चक्रवर्त्तिराज्यं धार्मिकैः प्राप्तव्यमिति संक्षेपतोऽस्य चतुर्थसूक्तोक्तार्थस्य तृतीयसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।

अस्यापि सूक्तस्या-वर्त्तनिवासिभिः सायणाचार्यादिभियूरोपाख्यदेशनिवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभिरन्यथैव व्याख्या कृतेति वेदितव्यम्

इति चतुर्थं सूक्तमष्टमश्च वर्ग: समाप्तः॥

पदार्थ:-हे विद्वान् मनुष्यो! जो बड़ों से बड़ा (सुपारः) अच्छी प्रकार सब कामनाओं की परिपूर्णता करनेहारा (सुन्वतः) प्राप्त हुए सोमविद्यावाले धर्मात्मा पुरुष को (सखा) मित्रता से सुख देने, तथा (रायः) विद्या सुवर्ण आदि धन का (अवनिः) रक्षक और इस संसार में उक्त पदार्थों में जीवों को पहुँचाने और उनका देनेवाला करुणामय परमेश्वर है, (तस्मै) उसकी तुम लोग (गायत) नित्य पूजा किया करो॥१०॥

भावार्थ:-किसी मनुष्य को केवल परमेश्वर की स्तुतिमात्र ही करने से सन्तोष न करना चाहिये, किन्तु उसकी आज्ञा में रहकर और ऐसा समझ कर कि परमेश्वर मुझको सर्वत्र देखता, है, इसलिये अधर्म से निवृत्त होकर और परमेश्वर के सहाय की इच्छा करके मनुष्य को सदा उद्योग ही में वर्तमान रहना चाहिये।१०॥

उस तीसरे सूक्त की कही हुई विद्या से, धर्मात्मा पुरुषों को परमेश्वर का ज्ञान सिद्ध करना तथा आत्मा और शरीर के स्थिर भाव, आरोग्य की प्राप्ति तथा दुष्टों के विजय और पुरुषार्थ से चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त होना, इत्यादि अर्थ करके इस चौथे सूक्त के अर्थ की सङ्गति समझनी चाहिये

आर्यावर्त्तवासी सायणाचार्य आदि विद्वान् तथा यूरोपखण्डवासी अध्यापक विलसन आदि साहबों ने इस सूक्त की भी व्याख्या ऐसी विरुद्ध की है कि यहां उसका लिखना व्यर्थ है।

यह चौथा सूक्त और आठवां वर्ग समाप्त हुआ।