ऋग्वेद 1.37.1


अथास्य पञ्चदशर्चस्य सप्तत्रिंशस्य सूक्तस्य घौरः कण्व ऋषिः। मरुतो देवताः।

१,२,४,६,८,१२ गायत्री। ३,९,११,१४ निद्गायत्री५ विरागायत्री १०,१५

पिपीलिकामध्या निचूद्गायत्री। १३ पादनिघृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥

तत्रादिमे मन्त्रे विद्वद्भिर्वायुगुणैः किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥

अब सैंतीसवे सूक्त का आरम्भ है और इस सूक्त भर में मोक्षमूलर आदि साहिबों का किया हुआ व्याख्यान असङ्गत है, उसमें एक-एक मन्त्र में उनकी अंसगति जाननी चाहियेइस सूक्त के प्रथम मन्त्र में विद्वानों को वायु के गुणों से क्या-क्या उपकार लेना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है।

क्रीळं वः शर्धा मारुतमनुर्वाणं रथे शुभ

म्कण्वा अ॒भि प्र गायत॥ १॥

क्रीळम्। वः। शर्धः। मारुतम्। अनर्वाणम्। रथे। शुभम्। कण्वाः । अभि। प्रा गायत॥ १॥

पदार्थ:-(क्रीडम्) क्रीडन्ति यस्मिँस्तत्अत्र कीड़ विहार इत्यस्माद् घञर्थे कविधानम् इति कः प्रत्ययः। (व:) युष्माकम् (शर्धः) बलम्। शर्ध इति बलनामसु पठितम्। (निघं० २.९) (मारुतम्) मरुतां समूहः। अत्र मृग्रोरुतिः। (उणा० १.९५) इति मृधातोरुतिः प्रत्ययःअनुदात्तादेरञ्। (अष्टा०४.२.४४) इत्यञ् प्रत्ययः। इदं पदं सायणाचार्येण मरुतां सम्बन्धि तस्येदम् इत्यण् व्यत्ययेनाादात्तत्वमित्यशुद्धं व्याख्यातम् (अनर्वाणम्) अविद्यामाना अर्वाणोऽश्वा यस्मिंस्तम्। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघ०१.१४) (रथे) रयते गच्छन्ति येन तस्मिन् विमानादियाने (शुभम्) शोभनम् (कण्वाः) मेधाविनः (अभि) आभिमुख्ये (प्र) प्रकृष्टार्थे (गायत) शब्दायत शृणुतोपदिशत च॥१॥

अन्वयः-हे कण्वा मेधाविनो विद्वांसो! यूयं यद्वोऽनर्वाणं रथे क्रीडं क्रियायां शुभमारुतं शर्धोऽस्ति, तदभिप्रगायत॥१॥

भावार्थ:-विद्वद्भिर्ये वायवः प्राणिनां चेष्टाबलवेगयानमङ्गलादिव्यवहारान् साधयन्ति, तस्मात् तद्गुणान् परीक्ष्यतेभ्यो यथायोग्यमुपकारा ग्राह्याः॥१॥

मोक्षमूलराख्येनार्वशब्देन ह्यश्वग्रहणनिषेधः कृतः सोऽशुद्ध एव भ्रममूलत्वात्। तथा पुनरर्वशब्देन सर्वत्रैवाश्वग्रहणं क्रियत इत्युक्तम्। एतदपि प्रमाणाभावादशुद्धमेव। अत्र विमानादेरनश्वस्य रथस्य विवक्षितत्वात्। अत्र कलाभिश्चालितेन वायुनाग्नेः प्रदीपनाज्जलस्य वाष्पवेगेन यानस्य गमनं कार्य्यते नहि पशवोऽश्वा गृह्यन्त इति॥१॥

पदार्थ:-हे (कण्वाः ) मेधावी विद्वान् मनुष्यो! तुम जो (व:) आप लोगों के (अनर्वाणम्) घोड़ों के योग से रहित (रथे) विमानादि यानों में (क्रीडम्) क्रीड़ा का हेतु क्रिया में (शुभम्) शोभनीय (मारुतम्) पवनों का समूह रूप (शर्धः) बल है, उसको (अभि प्रगायत) अच्छे प्रकार सुनो वा उपदेश करो॥१॥

भावार्थ:-सायणाचार्य ने (मारुतम्) इस पद को पवनों का सम्बन्धि (तस्येदम्) इस सूत्र से अण् प्रत्यय और व्यत्यय से आधुदात्त स्वर अशुद्ध व्याख्यान किया है। बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि जो पवन प्राणियों के चेष्टा, बल, वेग, यान और मङ्गल आदि व्यवहारों को सिद्ध करते, इससे इनके गुणों की परीक्षा करके इन पवनों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करें।।१।

मोक्षमूलर साहिब ने 'अर्व' शब्द से अश्व के ग्रहण का निषेध किया है, सो भ्रममूलक होने से अशुद्ध ही है और फिर अर्व शब्द से सब जगह अश्व का ग्रहण किया है, यह भी प्रमाण के न होने से अशुद्ध ही है। इस मन्त्र में अश्वरहित विमान आदि रथ की विवक्षा होने से यानों में कलाओं से चलाये हुए पवन तथा अग्नि के प्रकाश और जल की भाफ के वेग से यानों के गमन का सम्भव है, इससे यहाँ कुछ पशुरूप अश्व नहीं लिये हैं।।१।

पुनस्तैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते।।

फिर वे विद्वान् कैसे होने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।