ऋग्वेद 1.36.8

 मन्तौ वृत्रम॑तरन् रोद॑सी अप ऊरु क्षया॑य चक्रिरे

भुव॒त्कण्वे वृां द्युम्याहूतः क्रन्दो गविष्टिषु॥८॥

घ्रन्तः। वृत्रम्अतरन्। रोद॑सी इति। अ॒पः। उरु। क्षाय। चक्रिरे। भुव॑त्। कण्वे। वृषाद्युम्नीआऽहुतः। क्रन्दत्अश्वः। गोऽष्टिषु।। ८॥

पदार्थ:-(मन्त:) शत्रुहननं कुर्वन्तो विद्युत्सूर्यकिरणा इव सेनापत्यादयः (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (अतरन्) प्लावयन्ति। अत्र लडथै लङ्। (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपः) कर्माणि। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (उरु) बहु (क्षयाय) निवासाय (चक्रिरे) कुर्वन्ति। अत्र लडथै लिट। (भुवत्) भवेत् लेट प्रयोगो बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। (अष्टा०७.३.८८) इति गुणप्रतिषेधः । (कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने (वृषा) सुखवृष्टिकर्ता (द्युम्नी) द्युम्नानि बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन्। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। (आहुत:) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः (क्रन्दत्) हेषणाख्यं शब्दं कुर्वन् (अश्व:) तुरङ्ग इव (गविष्टिषु) गवां पृथिव्यादीनामिष्टिप्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु॥८॥

अन्वयः-राजपुरुषा विद्युत्सूर्यकिरणा वृत्रमिव शत्रुदलं घ्नन्तो रोदसी अतरन्नपः कुर्युः तथा गविष्टिषु क्रन्ददश्व इवाहुतो वृषासन्नुरुक्षयाय कण्वे द्युम्नी दधद्भवत्॥८॥

भावार्थ:-यथा विद्युद्भभौतिकसूर्याग्नयो मेघ छित्त्वा वर्षयित्वा सर्वान् लोकान् जलेन पूयन्ति तत् कर्म प्राणिनां चिरसुखाय भवत्येवं सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः कण्टकरूपाञ्छत्रून् हत्वा प्रजाः सततं तर्पणीयाः॥८॥

पदार्थः-राजपुरुष जैसे बिजुली सूर्य और उसके किरण (वृत्रम्) मेघ का छेदन करते और वर्षाते हुए आकाश और पृथिवी को जल से पूर्ण तथा इन कर्मों को प्राणियों के संसार में अधिक निवास केलिये करते हैं, वैसे ही शत्रुओं को (घ्नन्तः) मारते हुए (रोदसी) प्रकाश और अन्धेरे में (अपः) कर्म को करें और सब जीवों को (अतरन्) दुःखों के पार करें तथा (गविष्टिषु) गाय आदि पशुओं के संघातों में (क्रन्दत्) शब्द करते हुए (अश्वः) घोड़े के समान (आहुतः) राज्याधिकार में नियत किया (वृषा) सुख की वृष्टि करने वाला (उरुक्षयाय) बहुत निवास के लिये (कण्वे) बुद्धिमान् में (द्युम्नी) बहुत ऐश्वर्य को धरता हुआ सुखी (भुवत्) होवे॥८॥ _

भावार्थ:-जैसे बिजुली, भौतिक और सूर्य यही तीन प्रकार के अग्नि मेघ को छिन्न-भिन्न कर सब लोकों को जल से पूर्ण करते हैं, उनका युद्ध कर्म सब प्राणियों के अधिक निवास के लिये होता है, वैसे ही सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को चाहिये कि कण्टकरूप शत्रुओं को मार के प्रजा को निरन्तर तृप्त करें॥८॥

अथ सभापतेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

अब अगले मन्त्र में सभापति के गुणों का उपदेश किया है।