ऋग्वेद 1.36.5

 मन्द्रो होता॑ गृहप॑ति॒रग्नै दूतो विशामसि।

त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत॥५॥८॥

मन्द्रः। होता। गृहऽप॑तिः। अग्ने। दूतः। विशाम्। असि। त्वे इति। विश्ा। सम्ऽगतानि। व्रता। ध्रुवा। यानि। दे॒वाः। अकृण्वत॥५॥

पदार्थ:-(मन्द्रः) पदार्थप्रापकत्वेन हर्षहेतुः (होता) सुखानां दाता (गृहपतिः) गृहकार्याणां पालयिता (अग्ने) शरीरबलेन देदीप्यमान (दूतः) यो दुनोत्युपतप्य भिनत्ति दुष्टान् शत्रून् सः (विशाम्) प्रजानाम् (असि) (त्वे) त्वयि राज्यपालके सति (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (संगतानि) धर्म्यव्यवहारसंयुक्तानि (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि कर्माणि। व्रतमिति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (ध्रुवा) निश्चलानि। अत्र त्रिषु शेश्छन्दसि बहुलम् इति शेर्लोपः। (यानि) (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वत) कृण्वन्ति कुर्वन्ति। अत्र लडथै लङ् व्यत्येयनात्मनेपदञ्च।।५।।

अन्वयः-हे अग्ने! यतस्त्वं मन्द्रो होता गृहपतिर्दूतो विशांपतिरसि, तस्मात् सर्वा प्रजा यानि विश्वा ध्रुवा संगतानि व्रता धाणि कर्माणि देवा अकृण्वत तानि त्वे सततं सेवन्ते॥५॥ भावार्थ:-सुराजदूतसभासद एव राज्यं रक्षितुमर्हन्ति न विपरीताः।।५।। __

_इत्यष्टमो वर्गः॥

पदार्थ:-हे (अग्ने) शरीर और आत्मा के बल से सुशोभित जिससे आप (मन्द्रः) पदार्थों की प्राप्ति करने से सुख का हेतु (होता) सुखों के देने (गृहपतिः) गृहकार्यों का पालन (दूतः) दुष्ट शत्रुओं को तप्त और छेदन करने वाले (विशाम्) प्रजाओं के (पतिः) रक्षक (असि) हैं, इससे सब प्रजा (यानि) जिन (विश्वा) सब (ध्रुवा) निश्चल (संगतानि) सम्यक् युक्त समयानुकूल प्राप्त हुए (व्रता) धर्मयुक्त कर्मो को (देवाः) धार्मिक विद्वान् लोग (अकृण्वत) करते हैं, उनका सेवन (त्वे) आप के रक्षक होने से सदा कर सकती हैं।॥५॥ __

भावार्थ:-जो प्रशस्त राजा, दूत और सभासद् होते हैं, वे ही राज्य का पालन कर सकते हैं, इन से विपरीत मनुष्य नहीं कर सकते।।५।

आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ

अथाग्निदृष्टान्तेन राजपुरुषगुणा उपदिश्यन्ते।

अब अग्नि के दृष्टान्त से राजपुरुषों के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।