ऋग्वेद 1.34.9

 क्व? त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयौ वधुरो ये सनीळाः

कदा योगौ वाजिनो रासभस्य येनं यज्ञं नासत्योपयाथः॥९॥

क्वा त्री। चक्रा। त्रिऽवृतः। रथस्य। क्वा त्रयः। वधुरः। ये। सऽनीळाः। कदा। योगः। वाजिनःरासंभस्य। येन। य॒ज्ञम्। नासत्या। उपाथः॥९॥

पदार्थ:-(क्व) कस्मिन् (त्री) त्रीणि (चक्रा) यानस्य शीघ्रं गमनाय निर्मितानि कलाचक्राणि। अत्रोभयत्र शेश्छन्द० इति शेर्लोपः(त्रिवृतः) त्रिभी रचनचालनसामग्रीभिः पूर्णस्य (रथस्य) त्रिषु भूमिजलान्तरिक्षमार्गेषु रमन्ते येन तस्य (क्व) (त्रयः) जलाग्निमनुष्यपदार्थस्थित्यर्थावकाशा: (बधुरः) बन्धनविशेषाः। सुपां सुलुग्० इति जसः स्थाने सुः। (ये) प्रत्यक्षाः (सनीडाः) समाना नीडा बन्धना धारा गृहविशेषा अग्न्यागारविशेषा वा येषु ते (कदा) कस्मिन् काले (योगः) युज्यते यस्मिन् सः (वाजिनः) प्रशस्तो वाजो वेगोऽस्यास्तीति तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (रासभस्य) रासयन्ति शब्दयन्ति येन वेगेन तस्य रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। (निघ०१.१५) (येन) रथेन (यज्ञम्) गमनयोग्यं मार्ग (नासत्या) सत्यगुणस्वभावौ (उपयाथः) शीघ्रमभीष्ट स्थाने सामीप्यं प्रापयथः ॥९॥

अन्वयः-हे नासत्यावश्विनौ शिल्पिनौ युवां! येन विमानादियानेन यज्ञं सङ्गन्तव्यं मार्ग कदोपयाथो दूरदेशस्थं स्थानं सामीप्यवत्प्रापयथः तस्य च रासभस्य वाजिनस्त्रिवृतो रथस्य मध्ये क्व त्रीणि चक्राणि कर्त्तव्यानि क्व चास्मिन् विमानादियाने ये सनीडास्त्रयो बन्धुरास्तेषां योगः कर्त्तव्य इति त्रयः प्रश्नाः॥९॥

भावार्थ:-अत्रोक्तानां त्रयाणां प्रश्नानामेतान्युत्तराणि वेद्यानि विभूतिकामैनर रथस्यादिमध्यान्तेषु सर्वकलाबन्धनाधाराय त्रयो बन्धनविशेषाः कर्त्तव्याः। एकं मनुष्याणां स्थित्यर्थं द्वितीयमग्निस्थित्यर्थं तृतीयं जलस्थित्यर्थं च कृत्वा यदा यदा गमनेच्छा भवेत्तदा तदा यथायोग्यकाष्ठानि संस्थाप्याग्निं योजयित्वा कलायन्त्रोद्भावितेन वायुना सन्दीप्य वाष्पवेगेन चालितेन यानेन सद्यो दूरमपि स्थानं समीपवत्प्राप्तुं शक्नुयुः । नहीदृशेन यानेन विना कश्चिन्निर्विघ्नतया स्थानान्तरं सद्यो गन्तुं शक्नोतीति।।९॥

पदार्थ:-हे नासत्या सत्य गुण और स्वभाव वाले कारीगर लोगो! तुम दोनों (यज्ञम्) दिव्यगुण युक्त विमान आदि यान से जाने-आने योग्य मार्ग को (कदा) कब (उपयाथः) शीघ्र जैसे निकट पहुंच जावें, वैसे पहुंचते हो और (येन) जिससे पहुंचते हो उस (रासभस्य) शब्द करने वाले (वाजिनः)प्रशंसनीय वेग से युक्त (त्रिवृतः) रचन, चालन आदि सामग्री से पूर्ण (रथस्य) और भूमि, जल, अन्तरिक्ष मार्ग में रमण कराने वाले विमान में (क्व) कहाँ (त्री) तीन (चक्रा) चक्र रचने चाहिये और इस विमानादि यान में (ये) जो (सनीडाः) बराबर बन्धनों के स्थान वा अग्नि रहने का घर (बधुरः) नियमपूर्वक चलाने के हेतु काष्ट होते हैं, उनका (योगः) योग (क्व) कहाँ रहना चाहिये ये तीन प्रश्न हैं।॥९॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में कहे हुए तीन प्रश्नों के ये उत्तर जानने चाहिये। विभूति की इच्छा रखने वाले पुरुषों को उचित है कि रथ के आदि, मध्य और अन्त में सब कलाओं के बन्धनों के आधार के लिये तीन बन्धन विशेष सम्पादन करें तथा तीन कला घूमने-घुमाने के लिये सम्पादन करें। एक मनुष्यों के बैठने, दूसरी अग्नि की स्थिति और तीसरी जल की स्थिति के लिये करके जब-जब चलने की इच्छा हो, तब-तब यथायोग्य जलकाष्ठों को स्थापन, अग्नि को युक्त और कला के वायु से प्रदीप्त करके भाफ के वेग से चलाये हुए यान से शीघ्र दूर स्थान को भी निकट के समान जाने को समर्थ होवें। क्योंकि इस प्रकार किये विना निर्विघ्नता से स्थानान्तर को कोई मनुष्य शीघ्र नहीं जा सकता॥९॥ ___

पुनस्ताभ्यां कि साधनीयमित्युपदिश्यते॥

फिर उन से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंन्त्र में किया है