ऋग्वेद 1.33.13

 अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून् वि तिग्मेन॑ वृषभेणा पुरोऽभेत्।

सं वज्रेणासृजद् वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः॥१३॥

अभि। सिध्मः। अजिगात्। अस्य। शत्रून्। वि। ति॒िग्मैन। वृषभेण। पुरः। अभेत्। सम्। वज्रेण। असृजत्। वृत्रम्। इन्द्रः। प्रा स्वाम्। मतिम्। अतिरत्। शाशदानः॥ १३॥

पदार्थः-(अभि) आभिमुख्ये (सिध्मः) सेवते प्राप्नोति विजयं येन गुणेन सःअत्र षिधु गत्यामित्यस्मादौणादिको मक् प्रत्ययः। (अजिगात्) प्राप्नोति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लङ्। जिगातीतिगतिकर्मसु पठितम्। (निघं० २.१४) (अस्य) स्तनयित्नोः (शत्रून्) मेघावयवान् (वि) विशेषार्थे (तिग्मेन) तीक्ष्णेन तेजसा (वृषभेण) वृष्टिकरणोत्तमेन। अन्येषामपि इति दीर्घः। (पुर:) पुराणि (अभेत्) भिनत्ति (सम्) सम्यगर्थे (वज्रेण) गतिमता तेजसा (असृजत्) सृजति (वृत्रम्) मेघम् (इन्द्रः) सूर्यः (प्र) प्रकृष्टार्थे (स्वाम्) स्वकीयाम् (मतिम्) ज्ञापनम् (अतिरत्) सन्तरति प्लावयति अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (शाशदानः) अतिशयेन शीयते शातयति छिनत्ति यः सः।।१३।__

अन्वयः-यथास्य स्तनयित्नोः सिध्मो वेगस्तिग्मेन वृषभेण शत्रून् व्यजिगाद् विजिगाति। अस्य पुरो व्यभेत् पुराणि विभिनत्ति, यथाऽयं शाशदान इन्द्रो वृत्रं वज्रेण समसृजत् संसृजति संयुक्तं करोति, तथा मतिं ज्ञापिकां स्वां रीतिं प्रातिरत् प्रकृष्टतया सन्तरति, तथैवानेन सेनाध्यक्षेण भवितव्यम्॥३३॥

भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारःयथा विद्युन्मेघावयवाँस्तीक्ष्णवेगेन घनाकारं मेघ च छित्वा भूमौ निपात्य ज्ञापयति, तथैव सभासेनाध्यक्षो बुद्धिशरीरबलसेनावेगेन शश्छित्वा शस्त्रप्रहारैर्निपात्य स्वसंमतावानयेदिति।।१३।

पदार्थ:-जैसे (अस्य) इस सूर्य का (सिध्मः) विजय प्राप्त कराने वाला वेग (तिग्मेन) तीक्ष्ण (वृषभेण) वृष्टि करने वाले तेज से (शत्रून्) मेघ के अवयवों को (व्यजिगात्) प्राप्त होता और इस मेघ के (पुरः) नगरों के सदृश समुदायों को (व्यभेत्) भेदन करता है जैसे (शाशदानः) अत्यन्त छेदन करने वाली (इन्द्रः) बिजुली (वृत्रम्) मेघ को (प्रातिरत्) अच्छे प्रकार नीचा करती हैं वैसे ही इस सेनाध्यक्ष को होना चाहिये।।१३।20

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली मेघ के अवयव बादलों को तीक्ष्णवेग से छिन्न-भिन्न और भूमि में घेर कर उसको वश में करती है, वैसे ही सभासेनाध्यक्ष को चाहिये कि बुद्धि, शरीरबल वा सेना के वेग से शत्रुओं को छिन्न-भिन्न और शस्त्रों के अच्छे प्रकार प्रहार से पृथिवी पर गिरा कर अपनी सम्मति में लावें।।१३।

पुनरिन्द्रकृत्यमुपदिश्यते॥

फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।