ऋग्वेद 1.33.11

 अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम्।

सधीची न मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्म॑नाहन्नभि द्यून्॥११॥

__ अनु। स्वधाम्। अक्षरन्। आपः। अस्य। अवर्धत। मध्ये। आ| नाव्या॑नाम्। सधीचीनेन। मनसा। तम्। इन्द्रः। ओजिष्ठेन। हन्म॑ना। अहुन्। अभि। द्यून्।। ११॥

पदार्थ:-(अनु) वीप्सायाम् (स्वधाम्) अन्नमन्नं प्रति (अक्षरन्) संचलन्ति। अत्र सर्वत्र लडथे लङ्। (आपः) जलानि (अस्य) सूर्यस्य (अवर्धत) वर्धते (मध्ये) (आ) समन्तात् (नाव्यानाम्) नावा ताऱ्याणां नदी तडागसमुद्राणाम्नौवयोधर्म० (अष्टा० ४.४.९१) इत्यादिना यत्। (सध्रीचीनेन) सहाञ्चति गच्छति तत्सध्यङ्, सध्यङ् एव सध्रीचीनं तेन। सहस्य सध्रिः। (अष्टा०६.३.९५) अनेन सध्यादेशःविभाषाऽञ्चेरदिस्त्रियाम्। (अष्टा०५.४.८)18 चौ। (अष्टा०६.३.१३८) इति दीर्घत्वम्। (मनसा) मनोवद्वेगेन (तम्) वृत्रम् (इन्द्रः) विद्युत् (ओजिष्ठेन) ओजो बलं तदितिशयितं तेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। (निघ०२.९) (हन्मना) हन्ति येन तेन। अत्र कृतो बहुलमिति। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति करणे मनिन् प्रत्ययः। न संयोगाद्वमन्तात्। (अष्टा०६.४.१३७) इत्यल्लोपो न। (अहन्) हन्ति (अभि) आभिमुख्ये (अ॒न्) दीप्तान् दिवसान्॥११॥

अन्वयः-हे सेनाधिपते! यथाऽस्य वृत्रस्य शरीरं नाव्यानां मध्ये आवर्धत यथास्य आपः सूर्येण छिन्ना अनुस्वधामक्षरन्। यथा चायं वृत्रः सध्रीचीनेनौजिष्ठेन हन्मना मनसाऽस्य सूर्य्यस्याभिचूनहन् हन्ति। यथेन्द्रो विद्युत् सध्रीचीनेनौजिष्ठेन बलेन तं हन्ति। अभिड्न् प्रकाशान् च दर्शयति तथा नाव्यानां मध्ये नौकादिसाधनसहितं बलमावास्य युद्धस्य मध्ये प्राणादीनीन्द्रियाण्यनुस्वधां चालय सैन्येन तमिमं शत्रु हिन्धि न्यायादीन् प्रकाशय च।।११॥

भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युता वृत्रं हत्वा निपातिता वृष्टिर्यवादिकमन्नं नदीतडागसमुद्रजलं च वर्धयति, तथैव मनुष्यैः सर्वेषां शुभगुणानां सर्वतो वर्षणेन प्रजाः सुखयित्वा शत्रून् हत्वा विद्यासद्गुणान् प्रकाश्य सदा धर्मः सेवनीय इति॥११॥

पदार्थ:-हे सेना के अध्यक्ष! आप जैसे (अस्य) इस मेघ का शरीर (नाव्यानाम्) नदी, तड़ाग और समुद्रों में (आवर्द्धत) जैसे इस मेघ में स्थित हुए (आप:) जल सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर (अनुस्वधाम्) अन्न- अन्न के प्रति (अक्षरन्) प्राप्त होते और जैसे यह मेघ (सध्रीचीनेन) साथ चलने वाले (ओजिष्ठेन) अत्यन्त बलयुक्त (हन्मना) हनन करने के साधन (मनसा) मन के सदृश वेग से इस सूर्य के (अभिड्न्) प्रकाशयुक्त दिनों को (अहन्) अन्धकार से ढांप लेता और जैसे सूर्य के अपने साथ चलने वाले किरणसमूह के बल वा वेग से (तम्) उस मेघ को (अहन्) मारता और अपने (अभिड्न्) प्रकाशयुक्त दिनों का प्रकाश करता है, वैसे नदी तड़ाग और समुद्र के बीच नौका आदि साधन के सहित अपनी सेना को बढ़ा तथा इस युद्ध में प्राण आदि सब इन्द्रियों को अन्नादि पदार्थों से पुष्ट करके अपनी सेना से (तम्) उस शत्रु को (अहन्) मारा कीजिये।।११।। ___

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली ने मेघ मार कर पृथिवी पर गेरी हुई वृष्टि यव आदि अन्न-अन्न को बढ़ाती और नदी तड़ाग समुद्र के जल को बढ़ाती है, वैसे ही मनुष्यों को चाहिये कि सब प्रकार शुभ गुणों की वर्षा से प्रजा सुख शत्रुओं का मारण और विद्या वृद्धि से उत्तम गुणों का प्रकाश करके धर्म का सेवन सदैव करें।॥११॥

पुनरिन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते॥

फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।