ऋग्वेद 1.31.7

 त्वं तम॑ग्ने अमृतृत्व उत्तमे मतं दधासि श्रवसे दिवेदिवे।

यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये॥७॥

त्वम्। तम्अग्ने। अमृतऽत्वे। उत्तमे। मर्तम्। धासि। श्रवसे। दिवेऽदिवे। यः। ततृषाणः। उभायजन्मने। मयः। कृणोषि। प्रयः। आ। च। सूरये॥७॥

पदार्थः-(त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) पूर्वोक्तं धर्मात्मानम् (अग्ने) मोक्षादिसुखप्रदेश्वर (अमृतत्वे) अमृतस्य मोक्षस्य भावे (उत्तमे) सर्वथोत्कृष्टे (मर्त्तम्) मनुष्यम्। मर्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (दधासि) धरसि (श्रवसे) श्रोतुमर्हाय भवते (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (यः) मनुष्यः (तातृषाणः) पुन: पुनर्जन्मनि तृष्यति। अत्र छन्दसि लिट् इति लडथे लिट्, लिट: कानज्वा इति कानच् वर्णव्यत्ययेन दीर्घत्वं च। (उभयाय) पूर्वपराय (जन्मने) शरीरधारणेन प्रसिद्धाय (मयः) सुखम्। मय इति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (कृणोषि) करोषि (प्रयः) प्रीयते काम्यते यत् तत्सुखम् (आ) समन्तात् (च) समुच्चये (सूरये) मेधाविने। सूरिरिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५)॥७॥

अन्वयः-हे अग्ने जगदीश्वर! त्वं यः सूरिर्मेधावी दिवेदिवे श्रवसे सन्मोक्षमिच्छति तं मर्त्त मनुष्यमुत्तमेऽमृतत्वे मोक्षपदे दधासि, यश्च सूरिर्मेधावी मोक्षसुखमनुभूय पुनरुभयाय जन्मने तातृषाण: सँस्तस्मात् पदान्निवर्त्तते तस्मै सूरये मयः प्रयश्चाकृणोषि॥७॥

भावार्थ:-ये ज्ञानिनो धर्मात्मानो मनुष्या मोक्षपदं प्राप्नुवन्ति तदानीं तेषामाधार ईश्वर एवास्ति। यज्जन्मातीतं तत्प्रथमं यच्चागामि तद्वितीयं यद्वर्तते तत्तृतीयं यच्च विद्याचा-भ्यां जायते तच्चतुर्थम्। एतच्चतुष्टयं मिलित्वैकं जन्म यत्र मुक्तिं प्राप्य मुक्ता पुनर्जायते तद्वितीयजन्मैतदुभयस्य धारणाय सर्वे जीवाः प्रवर्त्तन्त इतीयं व्यवस्थेश्वराधीनास्तीति वेद्यम्॥७॥

पदार्थ:-हे (अग्ने) जगदीश्वर! आप (यः) जो (सूरिः) बुद्धिमान् मनुष्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन (श्रवसे) सुनने के योग्य अपने लिये मोक्ष को चाहता है उस (मर्त्तम्) मनुष्य को (उत्तमे) अत्युत्तम (अमृतत्वे) मोक्षपद में स्थापन करते हो और जो बुद्धिमान् अत्यन्त सुख भोग कर फिर (उभयाय) पूर्व और पर (जन्मने) जन्म के लिये चाहना करता हुआ उस मोक्षपद से निवृत्त होता है, उस (सूरये) बुद्धिमान् सज्जन के लिये (मयः) सुख और (प्रयः) प्रसन्नता को (आ कृणोषि) सिद्ध करते हो।॥७॥

भावार्थ:-जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्षपद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है जो जन्म हो गया वह पहिला और जो मृत्यु वा मोक्ष होके होगा वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है वह चौथा जन्म है। ये चार जन्म मिल के जो मोक्ष के पश्चात् होता है वह दूसरा जन्म है इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं। मोक्षपद से छूट कर संसार की प्राप्ति होती है, यह भी व्यवस्था ईश्वर के आधीन है।।७।

पुनस्तदुपासकः प्रजायै कीदृश इत्युपदिश्यते॥

फिर परमात्मा का उपासक प्रजा के वास्ते कैसा हो इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया कैसा