यदन्द्राहप्रथमजामहीामान्मा॒यिनाममाः प्रोत मायाः
आत्सूर्य जनयन्द्यामुषासं तादीना शत्रु न किला विवित्से॥४॥
यत्। इन्द्र। अहन्। प्रथमऽजाम्। अहीनाम्। आत्। मयिनाम्। अमिनाः। प्रा उत। मायाः। आत्। सूर्यम्। जनय॑न्। द्याम्। उषसम्। तादीना। शत्रुम्। न। किला विवित्से॥४॥
पदार्थ:-(यत्) यम्। सुपाम् इत्यमो लुक्। (इन्द्र) पदार्थविदारयितः सूर्यलोकसदृश (अहन्) जहि (प्रथमजाम्) सृष्टिकालयुगपदुत्पन्नं मेघम् (अहीनाम्) सर्पस्येव मेघावयवानाम् (आत्) अनन्तरम् (मायिनाम्) येषां मायानिर्माणं घनाकारं सूर्यप्रकाशाच्छादकं वा बहुविधं कर्म विद्यते तेषाम्। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। (अमिनाः) निवारयेद्वा। मीनातेनिगमे। (अष्टा०७.३.८१) इति ह्रस्वादेशश्च। (प्र) प्रकृष्टार्थे (उत) अपि (मायाः) अन्धकाराद्या इव (आत्) अद्भुते (सूर्य्यम्) किरणसमूहम् (जनयन्) प्रकटयन् सन् (द्याम्) प्रकाशमयं दिनम् (उषसम्) प्रातःसमयम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन दीर्घत्वम्। (तादीत्ना) तदानीम्। अत्र पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्। (अष्टा०६.३.१०९) अनेन वर्णविपर्यासेनाकारस्थान ईकार ईकारस्थान आकारस्तुडागमः पूर्वस्य दीर्घश्च। (शत्रुम्) वैरिणम् (न) इव (किल) निश्चयार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः । (विवित्से) अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्॥४॥
अन्वयः-हे सेनाराज॑स्त्वमिन्द्रः सूर्योऽहीनां प्रथमजां मेघमहन् तेषां मायिनामहीनां मायादीन् प्रामिणाः तादीत्ना यद्यं सूर्यकिरणसमूहमुषसं द्यां च प्रजनयन् दिनं करोति नेव शत्रून्विवित्से तेषां माया हन्यास्तदानीं न्यायकं प्रकटयन् सत्यविद्याचाराख्यं सवितारं जनय॥४॥
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारःयथा कश्चिच्छत्रोर्बलछले निवार्य तं जित्वा स्वराज्ये सुखन्यायप्रकाशौ विस्तारयति, तथैव सूर्योऽपि मेघस्य घनाकारं प्रकाशावरणं निवार्य स्वकिरणान् विस्तार्य मेघं छित्त्वा तमो हत्वा स्वदीप्तिं प्रसिद्धीकरोति।।४।
पदार्थ:-हे सेनापते! जैसे (इन्द्र) सब पदार्थों को विदीर्ण अर्थात् छिन्न-भिन्न करने वाला सूर्य्यलोक (अहीनाम्) छोटे-छोटे मेघों के मध्य में (प्रथमजाम्) संसार के उत्पन्न होने समय में उत्पन्न हुए मेघ को (अहन्) हनन करता है। जिनकी (मायिनाम्) सूर्य के प्रकाश का आवरण करने वाली बड़ी-बड़ी घटा उठती हैं, उन मेघों की (मायाः) उक्त अन्धकाररूप घटाओं को (प्रामिणाः) अच्छे प्रकार हरता है (तादीत्ना) तब (यत्) जिस (सूर्य्यम्) किरणसमूह (उषसम्) प्रातःकाल और (द्याम्) अपने प्रकाश को (प्रजनयन्) प्रगट करता हुआ दिन उत्पन्न करता है (न) वैसे ही तू शत्रुओं को (विवित्से) प्राप्त होता हुआ उनकी छल-कपट आदि मायाओं को हनन कर और उस समय सूर्य्यरूप न्याय को प्रसिद्ध करके सत्य विद्या के व्यवहाररूप सूर्य का प्रकाश किया कर॥४॥ ___
भावार्थः-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई राजपुरुष अपने वैरियों के बल और छल का निवारण कर और उनको जीत के अपने राज्य में सुख तथा न्याय का प्रकाश करता है, वैसे ही सूर्य भी मेघ की घटाओं की घनता और अपने प्रकाश के ढाँपने वाले मेघ को निवारण कर अपनी किरणों को फैला मेघ को छिन्न-भिन्न और अन्धकार को दूर कर अपनी दीप्ति को प्रसिद्ध करता है॥४॥ ____
पुनः स तं कीदृशं करोतीत्युपदिश्यते॥
फिर वह सूर्य्य उस मेघ को कैसा करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।