ऋग्वेद 1.31.13

 प्रत्ययःयो ग़तहव्योऽवृकाय धाय॑से कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोष तम्॥१३॥

त्वम्। अग्ने। यज्यवे। पायुः। अन्तरः। अनिषङ्गाया चतुःऽअक्षः। ढुध्यसे। यः। ग़तऽहव्यः। अवकाया धायसे। कीरः। चत्। मन्त्रम्। मनसा। वनोषि। तम्।। १३॥

पदार्थ:-(त्वम्) सभाधिष्ठाता (अग्ने) योऽग्निरिव देदीप्यमानः (यज्यवे) होमादिशिल्पविद्यासाधकाय विदुषे। अत्र यजिमनिशुधिदसि० (उणा०३.२०) अनेन यजधातोर्युच् प्रत्ययः। (पायुः) पालनहेतुः। ‘पा रक्षणे' इत्यस्माद् उण्। (अन्तरः) मध्यस्थः (अनिषङ्गाय) अविद्यमानो नितरां सङ्गः पक्षपातो यस्य तस्मै (चतुरक्षः) यः खलु चतस्रः सेना अश्नुते व्याप्नोति स चतुरक्षः अक्षा अश्नुवत एनान् इति वा अभ्यश्नुत एभिरिति वा। (निरु०९.७) (इध्यसे) प्रदीप्यसे (यः) विद्वान् शुभलक्षणः (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः (अवृकाय) अचोराय। वृक इति चोरनामसु पठितम्। (निघं०३.२४) अत्र सृवृभूशुषि० (उणा०३.४०) अनेन वृञ्धातोः कक् प्रत्ययः। (धायसे) यो दधाति सर्वाणि कर्माणि स धायास्तस्मै (कीरेः) किरति विविधतया वाचा प्रेरयतीति कीरिः स्तोता तस्मात्। कीरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) अत्र ‘क विक्षेप' इत्यस्मात् कगृशृपृकुटि० (उणा०४.१४८) अनेन इप्रत्ययः, स च कित् पूर्वस्य च दीर्घो बाहुलकात्। (चित्) इव (मन्त्रम्) उच्चार्यमाणं वेदावयवं विचारं वा (मनसा) अन्त:करणेन (वनोषि) याचसे सम्भजसि वा (तम्) अग्निम्।।१३॥

अन्वयः-हे सभापते! मनस्ता चिदिव रातहव्योऽन्तरश्चतुरक्षस्त्वमनिषङ्गायावृकाय धायसे यज्यवे यज्ञकर्त्रे इध्यसे दीप्यसे। किञ्च यं वनोषि सम्भजसि तस्य कीरेः सकाशाद् विनयमधिगम्य प्रजाः पालयेः॥१३॥ __

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारःयथाध्यापकाद्विद्यार्थिनो मनसा विद्या सेवन्ते, तथैव त्वमाप्तोपदेशानुसारेण राजधर्म सेवस्व।।१३।। ___

पदार्थ:-हे (त्वम्) सभापति! तू (मनसा) विज्ञान से (मन्त्रम्) विचार वा वेदमन्त्र को सेवने वाले के (चित्) सदृश (रातहव्यः) रातहव्य अर्थात् होम में लेने-देने के योग्य पदार्थों का दाता (पायुः) पालना का हेतु (अन्तरः) मध्य में रहने वाला और (चतुरक्षः) सेना के अङ्ग अर्थात् हाथी घोड़े और रथ के आश्रय से युद्ध करने वाले और पैदल योद्धाओं में अच्छी प्रकार चित्त देता हुआ (अनिषङ्गाय) जिस पक्षपातरहित न्याययुक्त (अवृकाय) चोरी आदि दोष के सर्वथा त्याग और (धायसे) उत्तम गुणों के धारण तथा (यज्यवे) यज्ञ वा शिल्प विद्या सिद्ध करने वाले मनुष्य के लिये (ध्यसे) तेजस्वी होकर अपना प्रताप दिखाता है, या कि जिसको (वनोषि) सेवन करता है, उस (कीरे:) प्रशंसनीय वचन कहने वाले विद्वान् से विनय को प्राप्त होके प्रजा का पालन किया कर॥१३॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्यार्थी लोग अध्यापक अर्थात् पढ़ाने वालों से उत्तम विचार के साथ उत्तम-उत्तम विद्यार्थियों का सेवन करते हैं, वैसे तू भी धार्मिक विद्वानों के उपदेश के अनुकूल होके राजधर्म का सेवन करता रह।।१३।_

_पुन: स एवोपदिश्यते॥

अगले मन्त्र में भी उसी अर्थ का प्रकाश किया है।