ऋग्वेद 1.30.8

 आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः।

वाजेभिरुप॑ नो हव॑म्॥८॥

आ। घ। गमत्। यदि। श्रवत्। सहस्रिणीभिः। ऊतिऽभिः। वाजेभिः। उपा नः। हव॑म्॥८॥

पदार्थ:-(आ) समन्तात् (घ) एवऋचि तुनुघ० इति दीर्घः(गमत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च(यदि) चेत् (श्रवत्) शृणुयात्। अत्र श्रुधातोर्लेट् बहुलं छन्दसि इति श्नोलुंक्। (सहस्रिणीभिः) सहस्राणि प्रशस्तानि पदार्थप्रापणानि विद्यन्ते यासु ताभिः। अत्र प्रशंसार्थ इनिः(ऊतिभिः) रक्षणादिभिः सह (वाजेभिः) अन्नज्ञानयुद्धादिभिः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न (उप) सामीप्ये (न:) अस्माकम् (हवम्) प्रार्थनादिकं कर्म।।८।

अन्वयः-यदि स इन्द्रः सभासेनाध्यक्षो नोऽस्माकमाहवमाह्वानं श्रवत् शृणुयात्तर्हि सद्य स एव सहस्रिणीभिरूतिभिर्वाजेभिः सह नोऽस्माकं हवमाह्वानमुपागमदुपागच्छेत्॥८॥

भावार्थ:-यत्र मनुष्यैः सत्यभावेन यस्य सभासेनाध्यक्षस्य सेवनं क्रियते, तत्र संरक्षणाय ससेनाङ्गे रत्नादिभिस्सह तानुपतिष्ठते नैतस्य सहायेन विना कस्यचित्सत्यो सुखविजयो सम्भवत इति॥८॥

पदार्थः-(यदि) जो वह सभा वा सेना का स्वामी (नः) हम लोगों की (आ) (हवम्) प्रार्थना को (श्रवत्) श्रवण करे (घ) वही (सहस्रिणीभिः) हजारों प्रशंसनीय पदार्थ प्राप्त होते हैं, जिनमें उन (ऊतिभिः) रक्षा आदि व्यवहार वा (वाजेभिः) अन्न ज्ञान और युद्ध निमित्तक विजय के साथ प्रार्थना को (उपागमत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हो॥८॥ ____

भावार्थ:-जहाँ मनुष्य सभा वा सेना के स्वामी का सेवन करते हैं, वहाँ वह सभाध्यक्ष अपनी सेना के अङ्ग वा अन्नादि पदार्थों के साथ उनके समीप स्थिर होता है। इस की सहायता के विना किसी को सत्य-सत्य सुख वा विजय नहीं होते हैं।॥८॥

अथेश्वरसभाध्यक्षयोः प्रार्थना सर्वमनुष्यैः कार्येत्युपदिश्यते।।

अब ईश्वर और सभाध्यक्ष की प्रार्थना सब मनुष्यों को करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।