ऋग्वेद 1.30.2

 एर्दु निम्नं न रीयते॥२॥

शतम्। वा। यः। शुचीनाम्। सहस्रम्। वा। सम्ऽआशिराम्। आ॥ इत्। ऊम् इति। निम्नम्। न। रीयते॥२॥

पदार्थः-(शतम्) असंख्यातम् (वा) पक्षान्तरे (यः) बहुशुभगुणयुक्तो जनः (शुचीनाम्) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये। शुचिश्शोचतेख़लतिकर्मणः। (निरु०६.१) (सहस्रम्) बह्वर्थे (वा) पक्षान्तरे (समाशिराम्) सम्यगभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैर्ये तेषाम्। अत्र श्रयते: स्वाङ्गे शिरः किच्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययः शिर आदेशश्चासुनि। (आ) आधारार्थे (इत्) एव (उ) वितर्के (निम्नम्) अधःस्थानम् (न) इव (रीयते) विजानाति। रीयतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४)॥२॥ __

अन्वयः-पवित्रश्चोपचितो विद्वान् योऽग्निीतिकोऽस्ति सोऽयं निम्नमधः स्थानं गच्छतीव शुचीनां शतं शतगुणो वा समाशिरां सहस्रं वैद्वाधारभूतो दाहको वा रीयते विजानाति॥२॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। अयमग्निः सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपेण शतश: शुद्धी: करोति पच्यमानानां पदार्थानां मध्ये वगैस्सहस्रशः पदार्थान् पचति, यथा जलमधःस्थानमभिद्रवति तथैवायमग्निरूर्ध्वमभिगच्छत्यनयोर्विपर्यासकरणेनाग्निमधः स्थापयित्वा तदुपरि जलस्य स्थापनेन द्वयोर्योगाद् वाष्पैर्वेगादयो गुणा जायन्त इति॥२॥

पदार्थ:-जो शुद्धगुण, कर्म, स्वभावयुक्त विद्वान् है, उसी से यह जो भौतिक अग्नि है वह (निम्नम्) (न) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (शुचीनाम्) शुद्ध कलायन्त्र वा प्रकाश वाले पदार्थों का (शतम्) (वा) सौ गुना अथवा (समाशिराम्) जो सब प्रकार से पकाए जावें, उन पदार्थों का (सहस्रम्) (वा) हजार गुना (आ) (इत्) (उ) आधार और दाह गुणवाला (रीयते) जानता है।।२॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। यह अग्नि सूर्य और बिजली जो इसके प्रसिद्ध रूप हैं, सैकड़ों पदार्थों की शुद्धि करता है और पकने योग्य पदार्थों में हजारों पदार्थों को अपने वेग से पकाता है, जैसे जल नीची जगह को जाता है, वैसे ही यह अग्नि ऊपर को जाता है। इन अग्नि और जल को लौटपौट करने अर्थात् अग्नि को नीचे और जल को ऊपर स्थापन करने से वा दोनों के संयोग से वेग आदि गुण उत्पन्न होते हैं।॥२॥

पुन: स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।