ऋग्वेद 1.28.5

 यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसै।

इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः।। ५॥२५॥

यत्चित्। हि। त्वम्गृहेगृहउलूखलका युज्यसै। दृहह्युमत्ऽतमम्। वद। जयताम्। इवदुन्दुभिः॥५॥

पदार्थ:-(यत्) यस्मात् (चित्) चार्थे (हि) प्रसिद्धौ (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् वीप्सायां द्वित्वं (उलूखलक) उलूखलं कायति शब्दयति यस्तत्सम्बुद्धौ विद्वन् (युज्यसे) समादधासि (इह) अस्मिन्संसारे गृहे स्थाने वा (धुमत्तमम्) प्रशस्तः प्रकाशो विद्यते यस्मिन् स शब्दो घुमान् अतिशयेन घुमान् ह्युमत्तमस्तम्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (वद) वादय वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (जयतामिव) विजयकरणशीलानां वीराणामिव (दुन्दुभिः) वादित्रविशेषैः ।।५।।

अन्वयः-हे उलूखलक! विद्वंस्त्वं यद्धि गृहेगृहे युज्यसे तद्विद्यां समादधासि, स त्वमिह जयतां दुन्दुभिरिव द्युमत्तममुलूखलं वादयेतद्विद्यां (चित्) वदोपदिश॥५॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। सर्वेषु गृहेषूलूखलक्रिया योजनीया यथा भवति शत्रूणां विजेतारः सेनास्थाः शूरा दुन्दुभिः वादयित्वा युध्यन्ते, यथैव रससम्पादकेन मनुष्येणोलूखले यवाद्योषधीर्योजयित्वा मुसलेन हत्वा तुषादिकं निवार्य सारांशः संग्राह्य इति॥५॥ ___

पदार्थ:-हे (उलूखलक) उलूखल से व्यवहार लेने वाले विद्वान्! तू (यत्) जिस कारण (हि) प्रसिद्ध (गृहेगृहे) घर-घर में (युज्यसे) उक्त विद्या का व्यवहार वर्त्तता है (इह) इस संसार गृह वा स्थान में (जयताम्) शत्रुओं को जीतने वालों के (दुन्दुभिः) नगाड़ों के (इव) समान (द्युमत्तमम्) जिसमें अच्छे शब्द निकले, वैसे उलूखल के व्यवहार की (वद) विद्या का उपदेश करें।।५॥ ___

भावार्थः-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब घरों में उलूखल और मुसल को स्थापन करना चाहिये, जैसे शत्रुओं के जीतने वाले शूरवीर मनुष्य अपने नगाड़ों को बजा कर युद्ध करते हैं, वैसे ही रस चाहने वाले मनुष्यों को उलूखल में यव आदि ओषधियों को डालकर मुसल से कूटकर भूसा आदि दूर करके सार-सार लेना चाहिये।।५॥

पुनस्तत्किमर्थं ग्राह्यमित्युपदिश्यते।

फिर वह किसलिये ग्रहण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।