यत्र मन्था विध्नतॆ रश्मीन् यमितवा इव
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥४॥
यत्री मन्ाम्। विऽव॒ध्नते। रश्मीन्। यमितवैऽइव। उलूखलऽसुतानाम्। अवा इत्। ऊम् इति। इन्द्र। जल्गुलः४॥
पदार्थः- (यत्र) यस्मिन् क्रियासाध्ये व्यवहारे (मन्थाम्) घृतादिनिस्सारणं मन्थानम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति नकारलोपः। (विबध्नते) विशिष्टतया बध्नन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (रश्मीन्) रज्जू: (यमितवाइव) निग्रहीतुमर्ह इवअत्र यम धातोस्तवै प्रत्ययः वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति इडागमः(उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन सम्पादितानां प्राप्तिम्। उलूखलशब्दार्थं यास्कमुनिरेवं समाचष्टे। उलूखलमुरुकरं वोर्ध्वखं वोर्करं वा। उस मे कुर्वित्यब्रवीत् तदुलूखलमभवत्। उरुकरं वै तदुलूखलमित्याचक्षते (निरु०९.२०) । (अव) इच्छ (इत्) निश्चये (उ) वितर्के (इन्द्र) रसाभिसिंचन् जीव (जल्गुल:) शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥४॥ ___
अन्वयः-हे इन्द्र! सुखाभिलाषिन् विद्वंस्त्वं रश्मीन् यमितवै सूर्यो वा सारथिरिव यत्र मन्थां विबध्नते, तत्रोलूखलसुतानां प्राप्तिमवेच्छ। एतामिदुविद्यां युक्त्या जल्गुल: शब्दयोपदिश॥४॥
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वर उपदिशति हे विद्वांसो! यथा सूर्यो रश्मिभिर्भूमिमाकर्षणेन बध्नाति यथा सारथी रज्जुभिरश्वान् नियच्छति, तथैव मन्थनबन्धनचालनविद्यया दुग्धादिभ्य ओषधिभ्यश्च नवनीतादिसारान् युक्त्या निष्पादयतेति॥४॥
पदार्थ:-हे (इन्द्र) सुख की इच्छा करने वाले विद्वान् मनुष्य! तू (रश्मीन्) (इव) जैसे (यमितवै) सूर्य अपनी किरणों को वा सारथी जैसे घोड़े आदि पशुओं की रस्सियों को (यत्र) जिस क्रिया से सिद्ध होने वाले व्यवहार में (मन्थाम्) घृत आदि पदार्थों के निकालने के लिये मन्थनियों को (विबध्नते) अच्छे प्रकार बांधते हैं, वहाँ (उलूखलसुतानाम्) उलूखल से सिद्ध हुए पदार्थों को (अव) वैसे ही सिद्ध करने की इच्छा कर (उ) और (इत्) उसी विद्या को (जल्गुलः) युक्ति के साथ उपदेश कर॥४॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर उपदेश करता है कि हे विद्वानो! जैसे सूर्य अपनी किरणों के साथ भूमि को आकर्षण शक्ति से बांधता और जैसे सारथी रश्मियों से घोड़ों को नियम में रखता है, वैसे ही मथने बांधने और चलाने की विद्या से दूध आदि वा औषधि आदि पदार्थों से मक्खन आदि पदार्थों को युक्ति के साथ सिद्ध करो।।४॥
तेनोलूखलेन कि कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।
उक्त उलूखल से क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।