ऋग्वेद 1.27.2

स घा नः सूनुः शव॑सा पृथुप्रैगामा सुशेवः

मीढ्वाँ अ॒स्माकं बभूयात्॥२॥

सःघ। नः। सूनुः। शव॑सा। पृथुऽप्रगामा। सुऽशेवः। मीढ्वान्। अस्माकम्। बभूयात्॥ २॥

पदार्थ:-(सः) वक्ष्यमाणः (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु० (अष्टा०६.३.१३३) अनेन दीर्घः । (न:) अस्माकम् (सूनुः) कार्यकारी सन्तानः। सूनुरित्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं०२.२) (शवसा) बलादिगुणेन सह (पृथुप्रगामा) पृथुभिः विस्तृतैर्यानेः प्रकृष्टो गामो गमनं यस्य सः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेराकारादेशः। (सुशेवः) शोभनं शेवं सुखं यस्मात् सः। शेवमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) अत्र। इण्शीभ्यां वन्। (उणा०१.१५०) अनेन शीङ्धातोर्वन् प्रत्ययः । (मीढ्वान्) वृष्टिद्वारा स्पेचकः। अत्र दाश्वान् साह्वान्० (अष्टा०६.१.१२) इति निपाताद् द्वित्वं न। (अस्माकम्) पुरुषार्थिनां सुक्रियया (बभूयात्) भवेत्। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नियमात् लिटः स्थाने लिङ् तद्वत्कार्य च। अत्र सायणाचार्येण लिटः स्थाने लिडित्युच्चार्य्य तिडां तिङो भवन्तीत्यशुद्धं व्याख्यातम्॥२॥

अन्वयः-यः सूनुः सुपुत्रः शवसा पृथुप्रगामा मीढ्वानस्ति, स नोऽस्माकं पुरुषार्थिना घ एव कार्यकारी बभूयात् भवेत्॥२॥

भावार्थ:-यथा विद्यासुशिक्षया धार्मिका विद्वांसः पुत्रा अनेकान्यनुकूलानि कर्माणि संसेव्य पित्रादीनां सुखानि नित्यं सम्पादयन्ति, तथैव बहुगुणयुक्तोऽयमग्निर्विद्यानुकूलरीत्या सम्प्रयोजितः सन्नस्माकं सर्वाणि सुखानि साधयति॥२॥


पदार्थ:-जो (सूनुः) धर्मात्मा पुत्र (शवसा) अपने पुरुषार्थ बल आदि गुण से (पृथुप्रगामा) अत्यन्त विस्तारयुक्त विमानादि रथों से उत्तम गमन करने तथा (मीढ्वान्) योग्य सुख का सींचने वाला है, वह (न:) हम लोगों की (घ) ही उत्तम क्रिया से धर्म और शिल्प कार्यों को करने वाला (बभूयात्) हो। इस मन्त्र में सायणाचार्य ने लिट् के स्थान में लिङ् लकार कहकर तिङ्को तिङ् होना यह अशुद्धता से व्याख्यान किया है, क्योंकि (तिरं तिङो भवन्तीति वक्तव्यम्) इस वार्तिक से तिडों का व्यत्यय होता है, कुछ लकारों का व्यत्यय नहीं होता है।।२।

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या सुशिक्षा से धार्मिक सुशील पुत्र अनेक अपने कहे के अनुकूल कामों को करके पिता माता आदि के सुखों को नित्य सिद्ध करता है, वैसे ही बहुत गुण वाला यह भौतिक अग्नि विद्या के अनुकूल रीति से सम्प्रयुक्त किया हुआ हम लोगों के सब सुखों को सिद्ध करता है।।२।___

पुन: स कीदृश इत्युपदिश्यते।

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।