ऋग्वेद 1.27.1

 अथ त्रयोदशर्चस्य सप्तविंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। १-१२ अग्निः। १३

विश्वेदेवा देवताः। १-१२ गायत्री। १३ त्रिष्टुप् छन्दः। १-१२ षड्जः। १३ धैवतः स्वरश्च॥

तत्रादिमेनग्निरुपदिश्यते॥

अब सत्ताईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके पहिले मन्त्र में अग्नि का प्रकाश किया है।

अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्नि नमोभिः।

सम्राजन्तमध्वरााम्॥१॥

अश्वम्। न। त्वा। वारऽवन्तम्। वन्दध्यै। अग्निम्। नम:ऽभिः। सम्ऽराजन्तम्। अध्वराणाम्॥ १॥

पदार्थः-(अश्वम्) वेगवन्तं वाजिनम् (न) (त्वा) त्वां तं वा (वारवन्तम्) वालवन्तम् (वन्दध्यै) वन्दितुम्। अत्र तुमर्थे सेसे० इति कध्यै प्रत्ययः। (अग्निम्) विद्वांसं वा भौतिकम् (नमोभिः) नमस्कारैरन्नादिभिः सह (सम्राजन्तम्) सम्यक् प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) राज्यपालनाग्निहोत्रादिशिल्पान्तानां यज्ञानां मध्ये (अश्वम्) मार्गे व्यापिनम् (न) इव (त्वा) त्वाम् (वारवन्तम्)। एतद्यास्कमुनिरेवं व्याचष्टेअश्वमिव त्वा वालवन्तं वाला दंशवारणार्था भवन्ति दंशो दशतः। (निरु०१.२०)॥१॥

अन्वयः-वयं नमोभिरिवन्तमश्वं न इवाध्वराणां सम्राजन्तं त्वामग्निं वन्दध्यै वन्दितुं प्रवृत्ताः सेवामहे॥१॥ __

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चित्स्वविद्यादिगुणैः स्वराज्ये राजते तथैव परमेश्वरः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः सर्वत्र प्रकाशते चेति॥१॥ ___

पदार्थ:-हम लोग (नमोभिः) नमस्कार, स्तुति और अन्न आदि पदार्थों के साथ (वारवन्तम्) उत्तम केशवाले (अश्वम्) वेगवान् घोड़े के (न) समान। (अध्वराणाम्) राज्य के पालन अग्निहोत्र से प्रवृत्त हुए भये सेवा करते हैं।।१।

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् स्वविद्या के प्रकाश आदि गुणों से अपने राज्य में अविद्या अन्धकार को निवारण कर प्रकाशित होते हैं, वैसे परमेश्वर सर्वज्ञपन आदि से प्रकाशमान है।॥१॥ ___

अथाऽपत्यगुणा उपदिश्यन्ते।।

अब अगले मन्त्र में सन्तान के गुण प्रकाशित किये हैं।।