ऋग्वेद 1.25.1



अथैकविंशत्यूचस्य पञ्चविंशस्य सूक्तस्याजीगर्त्तिः शुनःशेप ऋषिः। वरुणो देवता। गायत्री

छन्दः। षड्जः स्वरः॥

तत्रादौ प्रथममन्त्रे दृष्टान्तेन जगदीश्वरस्य प्रार्थना प्रकाश्यते॥

अब पच्चीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में परमेश्वर ने दृष्टान्त के साथ अपनी प्रार्थना का प्रकाश किया है

यचिद्धि ते विशौ यथा प्र देव वरुण वृतम्। 

मिनीमसि द्यविद्यवि॥१॥

यत्। चित्। हि। ते। विशः। यथा। प्रा देव। वरुण। वृतम्। मिनीमसि। द्यविऽद्यवि॥ १॥

पदार्थ:-(यत्) स्पष्टार्थः (चित्) अपि (हि) कदाचिदर्थे (ते) तव (विशः) प्रजाः (यथा) येन प्रकारेण (प्र) क्रियायोगे (देव) सुखप्रद (वरुण) सर्वोत्कृष्ट जगदीश्वर (व्रतम्) सत्याचरणम् (मिनीमसि) हिंस्मः। अत्र इदन्तो मसि इति मसेरिदागमः। (द्यविद्यवि) प्रतिदिनम्। अत्र वीप्सायां द्विवचनम्। द्यविद्यवीत्यह मसु पठितम्। (निघ०१.९)॥१॥ __

अन्वयः-हे देव वरुण जगदीश्वर! त्वं यथाऽज्ञानात्कस्यचिद्राज्ञो मनुष्यस्य वा विशः प्रजाः सन्तानादयो वा द्यविद्यव्यपराध्यन्ति कदाचित्कार्याणि हिंसन्ति स तन्न्यायं करुणां च करोति, तथैव वयं ते तव यव्रतं हि प्रमिणीमस्यस्मभ्यं तन्न्यायं करुणां चित्करोषि॥१॥ __

_भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारःहे भगवन् यथा पित्रादयो विद्वांसो राजानश्च क्षुद्राणां बालबुद्धीनामुन्मत्तानां वा बालकानामुपरि करुणां न्यायशिक्षां च विदधति, तथैव भवानपि प्रतिदिनमस्माकं न्यायाधीशः करुणाकरः शिक्षको भवत्विति।।१।

पदार्थ:-हे (देव) सुख देने (वरुण) उत्तमों में उत्तम जगदीश्वर आप (यथा) जैसे अज्ञान से किसी राजा वा मनुष्य के (विशः) प्रजा वा सन्तान आदि (द्यविद्यवि) प्रतिदिन अपराध करते हैं, किन्हीं कामों को नष्ट कर देते हैं, वह उन पर न्याययुक्त दण्ड और करुणा करता है, वैसे ही हम लोग (ते) आपका (यत्) जो (व्रतम्) सत्य आचरण आदि नियम हैं (हि) उन को कदाचित् (प्रमिणीमसि) अज्ञानपन से छोड़ देते हैं, उसका यथायोग्य न्याय (चित्) और हमारे लिये करुणा करते हैं।॥१॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे भगवन् जगदीश्वर ! जैसे पिता आदि विद्वान् और राजा छोटे-छोटे अल्पबुद्धि उन्मत्त बालकों पर करुणा, न्याय और शिक्षा करते हैं, वैसे ही आप भी प्रतिदिन हमारे न्याय करुणा और शिक्षा करने वाले हों।१।

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।।

फिर भी अगले मन्त्र में उक्त अर्थ ही का प्रकाश किया है।

यचिद्धि ते विशौ यथा प्र देव वरुण वृतम्।

मिनीमसि द्यविद्यवि॥१॥

यत्। चित्। हि। ते। विशः। यथा। प्रा देव। वरुण। वृतम्। मिनीमसि। द्यविऽद्यवि॥ १॥

पदार्थ:-(यत्) स्पष्टार्थः (चित्) अपि (हि) कदाचिदर्थे (ते) तव (विशः) प्रजाः (यथा) येन प्रकारेण (प्र) क्रियायोगे (देव) सुखप्रद (वरुण) सर्वोत्कृष्ट जगदीश्वर (व्रतम्) सत्याचरणम् (मिनीमसि) हिंस्मः। अत्र इदन्तो मसि इति मसेरिदागमः। (द्यविद्यवि) प्रतिदिनम्। अत्र वीप्सायां द्विवचनम्। द्यविद्यवीत्यह मसु पठितम्। (निघ०१.९)॥१॥ __

अन्वयः-हे देव वरुण जगदीश्वर! त्वं यथाऽज्ञानात्कस्यचिद्राज्ञो मनुष्यस्य वा विशः प्रजाः सन्तानादयो वा द्यविद्यव्यपराध्यन्ति कदाचित्कार्याणि हिंसन्ति स तन्न्यायं करुणां च करोति, तथैव वयं ते तव यव्रतं हि प्रमिणीमस्यस्मभ्यं तन्न्यायं करुणां चित्करोषि॥१॥ __

_भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारःहे भगवन् यथा पित्रादयो विद्वांसो राजानश्च क्षुद्राणां बालबुद्धीनामुन्मत्तानां वा बालकानामुपरि करुणां न्यायशिक्षां च विदधति, तथैव भवानपि प्रतिदिनमस्माकं न्यायाधीशः करुणाकरः शिक्षको भवत्विति।।१।

पदार्थ:-हे (देव) सुख देने (वरुण) उत्तमों में उत्तम जगदीश्वर आप (यथा) जैसे अज्ञान से किसी राजा वा मनुष्य के (विशः) प्रजा वा सन्तान आदि (द्यविद्यवि) प्रतिदिन अपराध करते हैं, किन्हीं कामों को नष्ट कर देते हैं, वह उन पर न्याययुक्त दण्ड और करुणा करता है, वैसे ही हम लोग (ते) आपका (यत्) जो (व्रतम्) सत्य आचरण आदि नियम हैं (हि) उन को कदाचित् (प्रमिणीमसि) अज्ञानपन से छोड़ देते हैं, उसका यथायोग्य न्याय (चित्) और हमारे लिये करुणा करते हैं।॥१॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे भगवन् जगदीश्वर ! जैसे पिता आदि विद्वान् और राजा छोटे-छोटे अल्पबुद्धि उन्मत्त बालकों पर करुणा, न्याय और शिक्षा करते हैं, वैसे ही आप भी प्रतिदिन हमारे न्याय करुणा और शिक्षा करने वाले हों।१।

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।।

फिर भी अगले मन्त्र में उक्त अर्थ ही का प्रकाश किया है।