ऋग्वेद 1.25.8

 वेद मासो धृतव्रो द्वादश प्र॒जाव॑तः

वेदा य उपजायते॥८॥

वेदमासः। धृतऽव्रतः। द्वादशा प्र॒जाऽवतः। वेद। यः। उपजायते॥८॥

पदार्थ:-(वेद) जानाति (मासः) चैत्रादीन् (धृतव्रतः) धृतं व्रतं सत्यं विद्याबलं येन सः (द्वादश) मासान् (प्रजावतः) बह्वयः प्रजा उत्पन्ना विद्यन्ते येषु मास्नेषु तान्। अत्र भूमार्थे मतुप्। (वेद) जानाति। अत्रापि व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (यः) विद्वान् मनुष्यः (उपजायते) यत्किंचिदुत्पद्यते तत्सर्वं त्रयोदशो मासो वा।।८॥ ____

अन्वयः-यो धृतव्रतो मनुष्यः प्रजावतो द्वादश मासान् वेद तथा योऽत्र त्रयोदश मास उपजायते तमपि वेद स सर्वकालावयवान् विदित्वोपकारी भवति॥८॥

भावार्थ:-यथा सर्वज्ञत्वात् परमेश्वरः सर्वाधिष्टानं कालचक्रं विजानाति, तथा लोकानां कालस्य च महिमानं विदित्वा नैव कदाचिदस्यैककणः क्षणोऽपि व्यर्थो नेय इति॥८॥

पदार्थः-(यः) जो (धृतव्रतः) सत्य नियम, विद्या और बल को धारण करने वाला विद्वान् मनुष्य (प्रजावत:) जिनमें नाना प्रकार के संसारी पदार्थ उत्पन्न होते हैं (द्वादश) बारह (मासः) महीनों और जो कि (उपजायते) उनमें अधिक मास अर्थात् तेरहवां महीना उत्पन्न होता है, उस को (वेद) जानता है, वह काल के सब अवयवों को जानकर उपकार करने वाला होता है।।८।।

भावार्थ:-जैसे परमेश्वर सर्वज्ञ होने से सब लोक वा काल की व्यवस्था को जानता है, वैसे मनुष्यों को सब लोक तथा काल के महिमा की व्यवस्था को जानकर इस को एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिये।॥८॥

पुन: स कि कि जानातीत्युपदिश्यते

फिर वह क्या-क्या जानता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है