ऋग्वेद 1.24.13

 अव ते हेळो वरुण नौभिरवं य॒ज्ञेभिरीमहे हविर्भिः।

क्षय॑न्नुस्मभ्य॑मसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि।। १४॥

अवा ते। हेळ:। वरुण। नम:ऽभिः। अवा यज्ञेभिः। ईमहे। हुविःऽभिः। क्षय॑न्। अस्मभ्यम्। असुरः। प्रचेत इति प्रऽचेतः। राजन्। एनांसि। शिश्रयः। कृतानि।। १४॥

पदार्थः-(अव) क्रियार्थे (ते) तव (हेळ:) हिड्यते विज्ञायते प्राप्यते यः सः (नमोभिः) नमस्कारैरन्नैर्जलैा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) जलनामसु वा। (निघं०१.१२) (अव)पृथगर्थे (यज्ञेभिः) कर्मोपासनाज्ञाननिष्पादकैः कर्मभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (ईमहे) बुध्यामहे (हविर्भिः) दातुं ग्रहीतुमर्हे:अत्र अर्चिशुचिहुसृपि० (उणा०२.१०४) अनेन हु धातोरिसि: प्रत्ययः। (क्षयन्) विनाशयन् (अस्मभ्यम्) विद्यानुष्टातृभ्यः (असुर) असुषु रमते तत्सम्बुद्धौ स वा (प्रचेतः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ स वा (राजन्) प्रकाशमान (एनांसि) पापानि (शिश्रथः) विज्ञानदानेन शिथिलानि करोतु (कृतानि) अनुचरितानि।।१४।। ___

अन्वयः-हे राजन् प्रचेतोऽसुर वरुणास्मभ्यं विज्ञानप्रदातो भगवन् यतस्त्वमस्मत्कृतान्येनांसि क्षयन् सन्नवशिश्रथस्तस्माद्वयं नमोभिर्यज्ञेभिस्ते तव हेळोऽवेमहे मुख्यप्राणस्य वा॥१४॥

 भावार्थ:-यैर्मनुष्यैर्यथा परमेश्वररचितसृष्टौ विज्ञापितेन बोधेन कृतानि पापकर्माणि फलैः शिथिलायन्ते तथानुष्ठातव्यम्। यथा ज्ञानरहितं पुरुषं कर्मफलानि पीडयन्ति तथा नैव ज्ञानसहितं पीडयितुं समर्थानि भवन्तीति वेद्याम्॥१४॥ ___

पदार्थ:-हे (राजन्) प्रकाशमान (प्रचेतः) अत्युत्तम विज्ञान (असुर) प्राणों में रमने (वरुण) अत्यन्त प्रशंसनीय (अस्मभ्यम्) हमको विज्ञान देनेहारे भगवन् जगदीश्वर जिसलिये हम लोगों के (कृतानि) किये हुए (एनांसि) पापों को (क्षयन्) विनाश करते हुए (अवशिश्रथः) विज्ञान आदि दान से उनके फलों को शिथिल अच्छे प्रकार करते हैं, इसलिये हम लोग (नमोभिः) नमस्कार वा (यज्ञेभिः) कर्म उपासना और ज्ञान और (हविर्भिः) होम करने योग्य अच्छे-अच्छे पदार्थों से (ते) आपका (हेळ:) निरादर (अव) न कभी (ईमहे) करना जानते और मुख्य प्राण की भी विद्या को चाहते हैं।॥१४॥

भावार्थ:-जिन मनुष्यों ने परमेश्वर के रचे हुए संसार में पदार्थ करके प्रकट किये हुए बोध से किये पाप कर्मों को फलों से शिथिल कर दिया वैसा अनुष्ठान करें। जैसे अज्ञानी पुरुष को पापफल दुःखी करते हैं, वैसे ज्ञानी पुरुष को दुःख नहीं दे सकते॥१४॥ __

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते

फिर भी अगले मन्त्र में वरुण शब्द ही का प्रकाश किया है।