ऋग्वेद 1.25.10

 साम्राज्याय सुक्रतुः॥१०॥१७॥

नि। साद। धृतऽव्रतः। वरुणः। पुस्त्या॑सु। आ। साम्राज्याय। सुक्रतुः॥१०॥

पदार्थ:-(नि) नित्यार्थे (ससाद) तिष्ठति। अत्र लडथै लिट्। सदेः परस्य लिटि। (अष्टा०८.३.१०७) अनेन परसकारस्य मूर्धन्यादेशनिषेधः। (धृतव्रतः) सत्याचारशीलः (वरुणः) उत्तमो विद्वान् (पस्त्यासु) पस्त्येभ्यो गृहेभ्यो हितास्तासु प्रजासु। पस्त्यमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (आ) समन्तात् (साम्राज्याय) यद्राष्ट्र सर्वत्र भूगोले सम्यक् राजते प्रकाशते तस्य भावाय (सुक्रतुः) शोभनाः क्रतवः कर्माणि प्रजा वः यस्य सः।।१०।।

अन्वयः-यथा यो धृतव्रतः सुक्रतुर्वरुणो विद्वान् मनुष्यः पस्त्यासु प्रजासु साम्राज्यायानिषसाद तथाऽस्माभिरपि भवितव्यम्।।१०।।

भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः सर्वासां प्रजानां सम्राट् वर्त्तते तथा य ईश्वराज्ञायां वर्तमानो विद्वान् धार्मिकः शरीरबुद्धिबलसंयुक्तो मनुष्यो भवति स एव साम्राज्यं कर्तुमर्हतीति।१०॥

पदार्थ:-जैसे जो (धृतव्रतः) सत्य नियम पालने (सुक्रतुः) अच्छे-अच्छे कर्म वा उत्तम बुद्धियुक्त (वरुणः) अति श्रेष्ठ सभा सेना का स्वामी (पस्त्यासु) अत्युत्तम घर आदि पदार्थों से युक्त प्रजाओं में (साम्राज्याय) चक्रवर्ती राज्य को करने की योग्यता से युक्त मनुष्य (आनिषसाद) अच्छे प्रकार स्थित होता है, वैसे ही हम लोगों को भी होना चाहिये॥१०॥ ___

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर सब प्राणियों का उत्तम राजा है, वैसे जो ईश्वर की आज्ञा में वर्तमान धार्मिक शरीर और बुद्धि बलयुक्त मनुष्य हैं, वे ही उत्तम राज्य करने योग्य होते हैं।॥१०॥

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।।

फिर अगले मन्त्र में उक्त अर्थ का ही प्रकाश किया है।