ऋग्वेद 1.23.16

 तो स  स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिध

त्गोभर्यवं न चर्कषत्॥ १५॥१०॥

उतो इति। सः। मह्यम्। इन्दुऽभिः। षट्। युक्तान्। अनुऽसेषिधत्। गोभिः। यवम्। न। चर्कषत्॥ १५॥

पदार्थ:-(उतो) पक्षान्तरे (स:) जगदीश्वरः (मह्यम्) धर्मात्मने पुरुषार्थिने (इन्दुभिः) स्निग्धैः पदार्थे: सह (षट्) वसन्तादीनृतून् (युक्तान्) सुखसम्पादकान् (अनुसेषिधत्) पुन: पुनरनुकूलान् प्रापयेत्। अत्र यङलुगन्ताल्लेट सेधतेर्गतौ। (अष्टा०८.३.११३) इत्यभ्यासस्य षत्वप्रतिषेधः। उपसर्गादिति वक्तव्यं किं प्रयोजनम्। उपसर्गाद् या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो यथा स्याद्, अभ्यासाद्या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो मा भूदिति। स्तुम्भुसिवु० (अष्टा०वा०८.३.११६) अत्र महाभाष्यकारेणोक्तम्। सायणाचार्येणेदमज्ञानान्न बुद्धमिति (गोभिः) गो हस्त्यश्वादिभिः सह (यवम्) यवादिकमन्नम् (न) इव (चर्कषत्) पुन: पुनर्भूमि कर्षेत्। अत्र यङ्लुगन्ताल्लेट्॥१५॥

अन्वयः-कृषीवलो भूमिं चर्कषद्धान्यादिप्राप्त्यर्थं पुनः पुर्नभूमि कर्षतो वायमीश्वरो मह्यमिन्दुभिस्सह वसन्तादीन् युक्तान् गोभिः सह यवमनुसेषिधत् पुनः पुनरनुगतं प्रापयेत् तस्मादहं तमेवेष्टं मन्ये।। १५॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य: कृषीवलो वा किरणैर्हलादिभिर्वा पुन: पुनर्भूमिमाकृष्य कर्षित्वा समुप्य धान्यादीनि प्राप्य वसन्तादीन् षड्ऋतून् सुखसंयुक्तान् करोति, तथेश्वरोऽप्यनुसमयं सर्वेभ्यो जीवेभ्यः कर्मानुसारेण रसोत्पादनविभजनेनर्तन् सुखसंपादकान् करोति॥१५॥

इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये दशमो वर्ग।। १०॥

पदार्थ:-जैसे खेती करने वाला मनुष्य हर एक अन्न की सिद्धि के लिये भूमि को (चर्कषत्) वारंवार जोतता है (न) वैसे (सः) वह ईश्वर (मह्यम्) जो मैं धर्मात्मा पुरुषार्थी हूं, उसके लिये (इन्दुभिः) स्निग्ध मनोहर पदार्थों और वसन्त आदि (षट्) छ: (ऋतून्) ऋतुओं को (युक्तान्) (गोभिः) गौ, हाथी और घोड़े आदि पशुओं के साथ सुखसंयुक्त और (यवम्) यव आदि अन्न को (अनुसेषिधत्) वारंवार हमारे अनुकूल प्राप्त करे, इससे मैं उसी को इष्टदेव मानता हूँ॥१५॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य वा खेती करने वाला किरण वा हल आदि से वारंवार भूमि को आकर्षित वा खन, बो और धान्य आदि की प्राप्ति कर सचिक्कनकर पदार्थों के सेवन के साथ वसन्त आदि छ: ऋतुओं को सुखों से संयुक्त करता है, वैसे ईश्वर भी समय के अनुकूल सब जीवों को कर्मों के अनुसार रस को उत्पन्न वा ऋतुओं के विभाग से उक्त ऋतुओं को सुख देने वाली करता है।।१५॥

इति दशमो वर्गः॥

अथ जलगुणा उपदिश्यन्ते।

अब अगले मन्त्र में जल के गुण प्रकाशित किये हैं